“हर बार जले है दीप नहीं”
अटल सा प्रण लिये प्राणी
चले प्रण कर चाल मतवाली
नव अंकुर का पता नहीं
स्व रंग सजे होली,दिवाली,
तू गान प्रेम का गाता चल
कविता में छंद बंधे जैसे
आये बसंती मिट्टी से खुशबू
चहुं ओर सुगंध बिखरे ऐसे
कुछ प्रेम आस को भार ले
पवन वेग को पहचान ले
वेदना में आंसू के कण-कण
जीवन सांसों को थाम ले
हाथों के अविचलित रेखा से
उन्माद हुए परास्त जहां
अकुलाते आंखों के सपने
अपमानित होता तेज वहां
तम की काली अंजुली से
उजालो का उन्मत जागे
परिहास किसी के चेहरे से
उन्नति की अभिमत आगे
अभिलेख किसी का,गान वही
जब खण्डित हो वृत्ति कहीं
सौन्दर्य धरा की शान पर
हर बार जले है दीप नहीं।।