हम सभ्य हो गये है
तन ढकने को कपड़े न थे
फिर भी प्रयास कि ढके तन,
अब लगे अम्बार वस्त्रों के
फिर भी तन दिखाने को मन।
हम सभ्य हो गये हैं।
आवागमन के साधन थे कम
फिर भी मिलते थे परिजनो से,
आज साधनो की है भरमार
फिर भी न मिलते प्रियजनो से।
हम सभ्य हो गये हैं।
घर की बेटी पूरे गाँव की बेटी
क्या मजाल कोई आख॔ भी उठाए,
दरिदों के लिए मिल के खडे होते
अब पडोसी भी आवाज न लगाए।
हम सभ्य हो गये है।
मोहल्ले के बुजुर्गो का पूंछते थे हाल
दादा बाबा लगें चरण स्पर्श करके,
हो जाते निहाल जब पाते आशीष
अब मां-बाप वृद्धाश्रम मे गुजर करते।
हम सभ्य हो गये हैं।
खिलौने की थी कमी बहुत
सब मिल आपस मे खेलते,
आज खिलौनों की है भरमार
तो बच्चे मोबाइल से खेलते।
हम सभ्य हो गये हैं।
मुहल्ले के पशुओं को खिलाते रोटी
गाय किसीकी पेट उसका हम भरते,
आज गरीब के बच्चे सो जायें भूखे
न रही इंसानियत परवाह नही करते।
हम सभ्य हो गये हैं।
अपरिचित, नाम-काम पूंछ लेते
जान पहचान यूं ही हुआ करती,
अब पडोस मे कौन रहता है ?
न जाने हम बात तक नही होती।
हम सभ्य हो गये हे।
स्वरचित मौलिक सर्वाधिकार सुरक्षित
अश्वनी कुमार जायसवाल 9044134297
प्रकाशित साझा काव्य संग्रह
इस रचना की चोरी हुई जिसे सुधा मौर्या जी ने अपने नाम से फेस बुक पर काव्योदय ग्रुप मे प्रकाशित किया।
सुश्री सुधा मौर्या जी
लगती तो आप संस्कारवान और संभ्रांत परिवार से है। ये आपको शोभा नही देता। चोरी जैसी तुच्छ हरकत। ये मेरी कविता है शीर्षक मे थोडा बदलाव करके पूरा कापी पेस्ट कर दिया। धिक्कार है ग्रुप को भी जिसकी आप सदस्य है।