हम तो कवि है
हम तो कवि है
ये बारिश का पानी
ये नदिया सुहानी
हरी सब है झाड़ी
भरी है पहाड़ी
झर-झर रे झरना
धरती का गहना
पंछी है उड़ते
गाते है गीत
हो न भला कैसे
इस जग से प्रीत।
जब हिम से भरी
पहाड़ी है रहती
सूरज की किरणें
प्यारी तब लगती
कुछ जंतु वन में
विचरण है करते
जीवन कशिश में
लगे है वो रहते
ये पावन धरा है
इस जैसा न दूजा
करते तभी तो
हम इसकी पूजा।
मधुर सी आवाजें
कोयल निकाले
बदरा जब छाए
मयूर नृत्य दिखाए
सब शीतल हो जाए
रात पूनम की आए
कुछ फूल प्यारे
मुस्कुरा रहे है
भँवरे भी कुछ गीत
गुनगुना रहे है
मौसम है सुहाना
पेड़ लहरा रहे है
हम तो कवि है
लिखे जा रहे है
लिखे जा रहे है……..
नन्दलाल सुथार”राही”
रामगढ़,जैसलमेर(राजस्थान)