हमारे तीरंदाज नेता ( हास्य- व्यंग्य कविता )
धर्नुधर अर्जुन को भी दे दी मात ,
करते हैं एक दूजे पर कठोर आघात ।
यह नेता बड़े निशाने बाज़ है।
कैसा अचूक निशाना साधते हैं,!
जहरीले शब्द बाणों का ऐसा प्रतिघात !
कलयुग में पहले बार देख रहे हैं।
और दांतो तले उंगली दबा रहे हैं।
मूक दर्शक बन देखते है हम सभी ,
इन्हें कुत्ता बिल्ली की तरह लड़ते हुए ।
बात बात पर परस्पर प्रहार करते हुए।
देखकर यह कलयुगी महाभारत ,
हालात को कोसे कुछ देश प्रेमी।
और कुछ लेते आनंद दिन रात ।
यूं तो इस कोयले की दलाली में
सबके हाथ है काले ,
हैं तन के उजले मगर मन के काले ।
यह अपना तो गिरेबां नहीं देखते ,
गर देखते तो क्यों करते पलटवार ?
यह तीरंदाजी का क्यों चलता व्यापार ।
इधर तीर चलाए और उधर निभाएं यारी ,
इनकी दोस्ती – दुश्मनी हमारी समझ से भारी ।
तारीफ में छुपे व्यंग्य की निराली है रीत ,
भरोसा तोड़ें यह बनके मनमीत ।
नुक्ताचीनी तो जैसे रग रग में है बसी,
प्रतिपक्ष की हर चाल में दृष्टि है फंसी।
तभी तो उजली दाल भी लगती काली,
बड़ी संकरी शंकाओं / कुशंकाओ की गली ।
इस गली में कभी निशाने पर तो कभी ,
अंधेरों में ही छोड़ दिए जाते है तीर।
इनके युद्ध में पिसती जनता बेचारी ।
और देश में बढ़ जाती विपदा भारी ।
अरे ! महानुभावों ! छोड़ो शौक तीरंदाजी का ,
फर्ज है तुम्हारा देशसेवा / समाज सेवा का ।
कोई काम नहीं तुम्हारा आपसी तकरार का ।
आपसी तानाकशी में यूं न वक्त बर्बाद करो ।
बेहतर होगा यही देशहित में मिलकर काम करो।