हमारी जिंदगी तमाम
काम, काम और काम बस, कहां है मेरे जीवन में आराम,
मेरे फर्ज, कर्तव्य और जिम्मेदारियां इनमें हीं खत्म मेरी जिंदगी तमाम।
घर, बाहर की सारी जिम्मेदारीयों का बोझ उठाए फिरतें हम,
दिन भर की थकान से टुटता बदन, फिर भी उफ तक ना करतें हम।
क्यों हर बात पर सिर्फ कसूरवार ठहराता है समाज हमको,
क्या हर लड़की निश्छल है,यह बात क्यों नहीं समझ आता उनको।
क्यों अच्छे पति का फर्ज अदा के लिए हर बार समझौता करें हम,
क्यों नहीं कभी-कभी हालातों को समझने की कोशिश भी करती हो तुम।
हां, दिखता हूं मैं मजबूत पर पत्थर तो नहीं,
धड़कता है हमारे सीने में मोम सा दिल,हर किसी को बताने की जरूरत तो नहीं।
चाहत है हमें भी बेतहाशा, बेपनाह, बेहिसाब प्यार की,
हर खुशी से बढ़कर हमें समझें उस खुबसूरत ख्याल की।