हक़ीक़त बताना ज़रूरी नहीं था
हक़ीक़त बताना ज़रूरी नहीं था
मुझे यूँ रुलाना ज़रूरी नहीं था
अगर तुम नहीं थी ग़ज़ल मेरी फिर तो
तुम्हें गुनगुनाना ज़रूरी नहीं था
मुझे छोड़कर तुमको जाना अगर था
ये मिलना-मिलाना ज़रूरी नहीं था
भुलाकर तुम्हें जब लगा आगे बढ़ने
मुझे फिर बुलाना ज़रूरी नहीं था
तड़पकर मेरी मौत वैसे भी होती
गला तो दबाना ज़रूरी नहीं था
-जॉनी अहमद ‘क़ैस’