स्वामी विवेकानंद
सजी थी उम्मीदें धरा पर ,
व्योम तक हुंकार भरना था ।
चला वो युवा सन्यासी निकल कर ,
विश्व में वेदांत का आह्वान करना था ।
राम कृष्ण के संधि का शक्ति मिला था ,
हृदय में धर्म रक्षा का भावना भरा था ।
मिला था भक्तिपद, माँ काली के चरणों का ,
पथ पर पथिक,मन से नहीं निर्बल निरा था।
क्या पूरब क्या पश्चिम हर जगह ,
बिखरते मूल्यों की पीड़ा पड़ी थी।
भौतिकता में लिपटा था तन मन ,
आतुरता हृदय में,आनन्द की आशा जगी थी।
सम्बोधन सुना जन जन ने,
जब यती हिंद जन की,
शिकागो के धर्मसभा में ,
बारम्बार तालियां बजी थी।
हुआ था शून्य का उद्घोष,
व्यापक अनंत मंडल में।
झूमा गगन भी अद्वैतदर्शन में,
मन आह्लादित हुआ था ।
करें हम याद उस क्षण को,
करें अर्पित हम तन मन को।
जन जन के विवेक का स्वामी,
शत् शत् नमन तुझको ।
मौलिक एवं स्वरचित
मनोज कुमार कर्ण