स्वाभिमान
मैं,
अर्थात बस सिर्फ मैं,
जो एक नारी है,जो परिपूर्ण होना चाहती है,
ममत्व से,प्रेम से,स्नेह से,और हर बंधन से,
हाँ ,मुझमें शक्ति है,अंधकार को हराने की,
हर विकार को मिटाने की,और अपना बनाने की।
मैं, अगर अन्नपूर्णा हूँ,तो दुर्गा भी हो सकती हूँ,
मुश्किलों का सामना कर,हर दुःख को सह सकती हूँ।
हां,मैं थोड़ी सख्त भी हूँ,और शिथिल भी हो सकती हूँ,
अपनों की खातिर थोड़ी हिटलर भी हो सकती हूँ।
कभी पत्नी , कभी प्रेमिका, तो कभी साथी बन,
तुम पर प्रेम में लुटाती हूँ,
कमजोर पड़ते हो जब तुम ,तब तुम्हारी हिम्मत बन,
तुमको धीर में बंधाती हूँ।
कभी गुस्सा करते हो जब तुम,तब तुमसे छुपके, नीर मैं बहाती हूँ।
न गिला कोई,न शिकवा कोई,न थकना, न रुकना,
बस हमेशा चलती ही जाती हूँ।
लेकिन कभी -कभी ऐसे पल भी आते हैं,
जब कोई मुझे समझ नहीं पाता है।
और मैं खामोश ,बस सोच में पड़ जाती हूँ।
कि कौन हूँ मैं?, क्या अस्तित्व है मेरा?
खंगालती हूँ जब अपने वजूद के पन्ने,
जगाने को अपना सम्मान,फिर सोचती हूँ,
बहुत जी लिया सबकी खातिर,अब स्वयं बनानी है पहचान।
क्योंकि स्त्री हुई तो क्या हुआ,है आखिर मेरा भी अपना
******* स्वाभिमान****