स्वर्णलता विश्वफूल : आज की सबसे अलग क्रांतिधर्मी और फॅमिनिज़्म कवयित्री
“जो 10 दिनों के अंदर पाती प्रेषित करने का वायदा करके जाय और 100 दिनों के बाद भी उनका कोई अता-पता न हो, तो भी उनपर थोड़े-से ही सही भरोसा जरूर करनी चाहिए ।” कवयित्री स्वर्णलता ‘विश्वफूल’ के ये शब्द उदास चेहरे में भी मुस्कराहट की कुछ वजह तो बनती ही है । लेखक-समीक्षक टी. मनु उनकी कविताओं को विन्यास में लेकर लिखते हैं, “मेरे अंदर भी विचलन आने लगा है । छात्र-जीवन का दौर अपने आप में स्वर्गिक अनुभूति लिए है । पढ़ने में मन लगता तो था, किन्तु परियों की कथा-संसार में ज्यादा ! मैं उन स्वप्निल वातावरण में किसी अप्सरा को ढूढ़ा करता था । विद्यालय में छुट्टी की घंटियाँ मुक्तछंद की कविताओं की भाँति थी, जो कि घर लौटते वक्त आम के बगीचे में टिकोले को खाते-चबाते और अपरिपक्व बीज के साथ छेड़-छाड़ करते माँ की गोदी तक यूँ पहुँच जाते थे, मानो कोई स्वच्छंद विचरते शिक्षक मुझमें ही लीन हो गए हैं । आज की सरकार शिक्षक को छड़ी से दूर रखते हैं, किन्तु तब छड़ी की आवाज़ कम से कम मुझे तो गौरेये की टिक-टिक लगता ,परंतु अभी छड़ी और गौरेये — दोनों गायब है । क्या बड़े-बड़े हथौड़े के साथ कवींद्र रबीन्द्र बना जा सकता है ! क्या इस कवयित्री को बनाने में महादेवी वर्मा और सुभद्रा कुमारी चौहान की आत्मा ‘पुल’ का कार्य की भी थी ?”
कवयित्री ‘विश्वफूल’ की अग्रांकित कविता से उनसे रूबरू होइए-
”मैं- एक गरीब कुम्हार की बेटी,
शिक्षा- एम. ए. हिंदी और पत्रकारिता में डिप्लोमा भी,
पिता का व्यवसाय- माटी पेशा,
रात-दिन चाक और आवाँ के बीच जूझते,
गुड्डे-गुड़िये का निर्माणकर / स्वयं प्रजापति भी कहाते,
गुड्डे को दुल्हा और गुड़िए को दुल्हिन बनाते,
रोज-ब-रोज / दिनचर्या यही / मेरे पिता की / एक कुम्हार की,
किन्तु / घर पर मैं यानी उनकी गुड़िया / कुँवारी पड़ी,
हाँ/ पूरे दस साल बीत गए / बालिग़ हुए मुझे / परंतु,
पिता अपनी गुड़िया को / दुल्हिन नहीं बना सके / अबतक ।”
महाकवि नागार्जुन ट्रस्ट, मधुबनी ने सुश्री स्वर्णलता ‘विश्वफूल’ को ‘राष्ट्रीय कबीर पुरस्कार 2007’ प्रदान किया, तो लिखा, “हिंदी कविता में महत्वपूर्ण योगदान , खासकर हिंदी दलित कविता लेखन के क्षेत्र में अवदान के लिए यह पुरस्कार दिया जा रहा है । महाकवि नागार्जुन ट्रस्ट ने इससे पूर्व प्रो. अरुण कमल, डॉ. खगेन्द्र ठाकुर, त्रिपुरा के पूर्व राज्यपाल प्रो. सिद्धेश्वर प्रसाद, डॉ. सुरेन्द्र ‘स्निग्ध’, डॉ. जितेंद्र राठोर, श्रीमती महासुन्दरी देवी, श्री ईश्वरचंद्र गुप्त, डॉ. पी. आर. सुल्तानिया और डॉ. ए. के. ठाकुर जैसी हस्तियों को विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान के लिए सम्मानित किया है।”
दलित-स्थिति के मूल्यांकनार्थ इस पुरस्कृत कवयित्री की कवितांश देखिये-
“अशब्द यानी गूंगे,
अशब्द यानी बहरे,
अशब्द यानी लँगड़े,
अशब्द यानी लूले,
अशब्द यानी अंधे,
भला इनसे नाता तोड़ सकूँगी,
दबे-कुचले हैं/फिर भी
ये सब / हमारे भाई-बहन हैं।”
विदेश मंत्रालय, भारत सरकार से पुरस्कृत होनेवाली बिहार की एकमात्र कवयित्री स्वर्णलता जी हिंदी भाषा-साहित्य में एम.ए. हैं और ज़िला-गौरव से नवाज़ी शिक्षिका भी हैं । भ्रष्टाचार के विरुद्ध विगुल भी बजायी है और कोर्ट तक वाद ले गयी हैं । पहली कविता 1992 में छपी थी,जब वे मात्र 9 वर्ष की थी । वरेण्य पत्रकार स्व. खुशवंत सिंह से प्रशंसित कविता ‘ये उदास चेहरे’ की अनेक बार पाठ हो चुकी है।
‘ये उदास चेहरे’ से ये कवितांश-
“इन्हें चाहिए–
‘अप्सरा’ की छोटी-छोटी गोलियाँ,
और ‘कॉपर-टी’ अनिवार्य,
क्योंकि ये खुशवंत सिंह के शब्दों में,
बच्चे पैदा करनेवाली मशीन जो ठहरी,
उनके लिए तो ‘कंडोम’ है,
परंतु उपयोग करना अमर्दानगी समझते हैं,
तभी तो चाय की प्यालियों की भाँति ,
फेंक दिया जाता है–
इन उदास चेहरों को / बार-बार ।”
बिहार, झारखंड सहित प. बंगाल के विभिन्न कवि-सम्मेलनों में भी इस कविता की कई बार पाठ हुई है, जो अहिन्दी भाषियों में भी लोकप्रिय रही है, वहीँ सभी वर्गों की महिलाओं के बीच भी। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रही सुश्री मायावती को निम्नोद्धृत कविता ‘लड़कियाँ’ इतनी जँची कि दूरभाष कर बैठी-
“ऐसे मुश्किल समाजों में भी,
अपनी थरथराती निगाहों से भी,
करती घायल पुरुष जाति को ,
और जो पुरुष इन्हें पाने में रहते असफल,
इन्हें ‘रंडी’ — नामार्थ फ़तवा जारी करते,
तब लड़की वो कहाँ रह पाती ?
औरत बना दी जाती वो ।”
कविता ‘ये उदास चेहरे’ नाम से कविता-संग्रह भी है, जिनमें 35 तलवारधार लिए कविताएं हैं, सभी कविताओं की धार न केवल तलवार की धार-सी पैनी, अपितु विस्फोट होने पर ‘एटम बम’ भी शरमा जाय । संकलन की कविताएँ राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पत्रिका या मंच से प्रकाशित/प्रसारित हैं । इतना ही नहीं, विश्व के सबसे कम उम्र के लघुकथाकार की प्रथम पुस्तक ’52 लघुकथाएँ ‘ को संपादित और प्रकाशित करने का श्रेय भी सुश्री विश्वफूल को ही प्राप्त है।
कवयित्री के बारे में कवि, शोधकार और रंगकर्मी श्री रामश्रेष्ठ दीवाना ने अनोखे अंदाज़ में लिखा, “सुश्री स्वर्णलता विश्वफूल की कविताओं में गहरी संवेदना, ज़िन्दगी की अथाह अनुभूतियाँ तथा शोषण, भोगवाद और पाखण्ड पर टिकी इस सावर्णिक-समाज और व्यवस्था के विरोध में उनकी तेवर की अस्मिता और विद्रोह काबिले-तारीफ़ है । इनकी कविताओं में / ज़िन्दगी की संवेदनाओं के समंदर में कवयित्री मीरा और लोकनायिका महुआ घटवारिन की प्रीत की कोटि-कोटि लहरें संगीतमय हो रही हैं ।” तभी तो ‘देवी अहिल्या’ नामक कविता में कवयित्री ने भड़ास निकाली है-
“जिसने गंभीरता ओढ़ रखी थी,
पर आँसू लिए नयनों में,
और पत्थर का बुत / वह,
चाहिए / स्पर्श,
अहिल्या राम की,
जो होती फिर से देवी,
ताकि इंद्रदेव पर वाद दायर कर सके।”
इस समय के महान फेसबुकिया आलोचक डॉ. मुसाफिर बैठा ऐसी परिसंस्कारित कविताओं पर अपना उदगार खुद की कविता के बहाने इसतरह छेड़ते हैं-
“जब मुझे लगता है कि किसी बात पर अपने तरीके से कुछ कहना ही चाहिए, तो मेरी लेखनी चल जाती है । रचना के लिए अँखुआते विचार सहेजने के वक्त मेरा जोर हमेशा वैज्ञानिकता की संगति में होता है । कविता की मेरी रचना-प्रक्रिया भी इन्हीं शर्तों से होकर गुजरती है । मन में लिखना हमेशा चलता रहता है, भले ही तत्क्षण शब्दबोध न हो पाए, कागज़ परभी न उतर पाए ।”
‘ये उदास चेहरे’ के प्रकाशक ‘कविता कोसी, ग़ाज़ियाबाद-201005’ है तथा प्रकाशन वर्ष 2011 है। साहित्य अकादमी के पूर्वी सचिव व वरिष्ठ समीक्षक डॉ. देवेन्द्र कुमार ‘देवेश’ ने इस संग्रह पर लिखा है । यथा- कवयित्री के विशिष्ट शब्द-प्रयोग तथा नारी अस्मिता की रक्षा के लिए उनकी चेतना और रोष तो संगृहीत कविताओं में बिम्बधर्मी प्रयोगों के कारण अनेक कविताएँ ढेर-सारी गझिन अभिव्यक्तियों का पुलिंदा-सा प्रतीत होती हैं, जो संभव है किसी अन्य कवि द्वारा उसकी शिल्प-शैली में कई-कई कविताओं में संप्रेषित की जातीं । लेकिन वस्तुतः विश्वफूल का अपना ही एक विशिष्ट काव्य-शिल्प है, जो हिंदी के प्रचलित कविता-शिल्पों से भिन्न है और इसीलिए न केवल हमें चौंकाता है, बल्कि कभी- कभी असहज स्थिति में भी डालता है । यह प्रयोग कविता के पाठ-प्रवाह को बाधित करता है और कहीं-कहीं अभिव्यक्ति को उलझाता भी है । नारी-अस्मिता की विशेष चिंता विश्वफूल की कविताओं में नज़र आती है ……. ऐसी कविताएँ पौराणिक, ऐतिहासिक, वैज्ञानिक, समसामयिक व्यक्तियों-प्रसंगों के ढेर सारे सन्दर्भों को एक विस्फोट की तरह हमारे सामने रखती हैं और इस विस्फोट में मानो अपनी सहज अभिव्यक्ति को दबा हुआ-सा महसूस करते हुए कवयित्री ‘लाउड’ हो जाती हैं और अश्लीलता की श्रेणी में रखे जानेवाले शब्दों का भी बेबाकी से प्रयोग करती हैं।
एक कविता में कवयित्री ने मुहावरों के सहज प्रयोग और निस्पृह अभिव्यक्ति प्रकट की हैं-
“मित्रों ! सुनो !!
कौन है यहाँ ?
दूध की धुली / किस हाथ में दही नहीं जमता,
दीया बिना बाती / कली बिन सोलहों श्रृंगार,
यादों के रोशन चेहरे,
अपरिचित स्वप्न/मृत स्वप्न,
इनमें भी श्रोत बन पाई हूँ,
कचरे के गड्ढे से निकलकर-
गूँगे की आवाज बन पाई हूँ।”
इसप्रकार से संग्रह की 35 कविताएँ, यथा– ये उदास चेहरे, वीर शहीद, लड़कियाँ, हैरी अब नहीं आएगा, जननायक की स्मृति में, मैं शब्द भी नहीं हूँ, वो तय था- वो तय है, कुत्ते तो नहीं – इधर उधर मुँह मारते हो, मेरी ज़िन्दगी तुम हो, मैं- नग्न माँ – बलात्कारी पिता, मनुष्य के लिए सवेरा, तड़प, खाने को बेर मिले, इक्कीसवीं सदी के कैलेण्डर में, की कटिहार एक शहर है, विधवा- एक परिभाषा, एक कवि मुक्तिबोध, एक सूनामी – एक चांस, अशब्द हूँ इसलिए, देवी अहिल्या, कि स्वार्थों से घिरा इक वानर हूँ, अप्रस्तुत वेदना, अतीत-प्रसंग, कैक्टस, रिश्ते का मूल्यांकन-इस बहरे समय में, वेश्या ही बनाई होती, मेरे सपनों का महल, लिफ़्ट नहीं माँगूँगा, सभी चले गए, कहीं ऐसा न हो, क्या देखती नहीं मानव की आँख, भिखारी के पास मोबाइल, मैं हूँ…, पंछियों की प्यास और 35 वें कविता- नए अंदाज़ की होली।
प्रख्यात कवयित्री स्वर्णलता विश्वफूल की एक कविता ‘चाक पर चढ़ी बेटी’ च एक महत्वपूर्ण रचना है, द्रष्टव्य –
“उस स्त्रीलिंग प्रतिमा,
यौवन-उफनाई प्रतिमा को
एक पुरुष ने खरीदा
और सीमेंटेड रोड पर
पटक-पटक
चू्र कर डाला ।
प्रतिमा के चूड़न को–
सिला में पीस डाला,
और अपनी लार से
मिट्टी का लौन्दा बनाया,
उसे चाक पर चढ़ा दिया,
कहा जाता है–
तब से बेटी
चाक पर चढ़ी है ।”
सुश्री विश्वफूल की अन्य कविता ‘कर्ण का क्या दोष’ भी बेहद मार्मिक है, यथा-
“सूरज भी जानता था अनछुई है कुंती,
कुंती भी जानती थी अपनी सीमाएँ,
परंतु यह प्यार थी या बलात्कार या प्रबल कामेच्छा
या भूकंप का आना या तूफाँ कर जाना ।
सूरज तो दर्प से चमकते रहे
कुंवारी कुंती को गर्भ ठहरनी ही थी
दोनों मज़े लिए-दिए या जो कहें
या कुंती की लज़्ज़ा के आँसू बहे ।
किन्तु कर्ण का क्या दोष था,
सूर्यांश होकर भी सूर्यास्त क्यों था,
क्यों वे कौन्तेय नहीं थे,
देवपुत्र होकर भी / सूतपुत्र क्यों कहलाये ?
सूरज बलात्कारी थे
या कुंती अय्याशी थी
या ‘मंत्रजाप’ ही बहाना था
या धरती की सुंदरी से, देवों का मन बहलाना था।”
बकौल, डॉ. देवेश, “कुल मिलाकर कवयित्री में कुछ नया, कुछ हटकर, कुछ विशेष कर गुजरने की बेचैनी है, जो उनकी कविताओं में नज़र आती है । ….. उनकी काव्य-दृष्टि में संभावनाओं का विशाल क्षितिज जगमगाता हुआ मुझे नज़र आता है । उनके विशिष्ट काव्य-जीवन के लिए मेरी अनंत शुभकामनाएँ हैं!” विश्वफूल की कविता-संग्रह ‘ये उदास चेहरे’ को आज के परिप्रेक्ष्य में नारी के प्रति सम्मानित सोच रखनेवाले को अवश्य ही पढ़नी चाहिए!