स्वयं ही स्वयं के साथ स्वयं में…
स्वयं ही स्वयं के साथ स्वयं में…
मैं आज आ बैठी हूँ बहते हुए झरने के पास
उसकी बाधित सी गति को निहारतीं
पत्थरो के बीच कठिनाइयो को पार करते हुए उसको
अपने को उसी के साथ समरसता में देखती हुई
जीवन की भागमभाग में कठिनाइयों को पार करते हुए
मैं भी तो चली जा रही हूँ जीवन की गतिशीलता में
स्वयं ही स्वयं के साथ स्वयं में…
कितनी बाधाओं से अपने अस्तित्व को बनाये हुए
बहता चला आ रहा हैं पानी अपनी गति से निरंतर
वो कभी नहीं चाहता किसी सागर में विलीन होना
उसको नही हैं चाह कि उसको विस्तृत आकार मिले
पानी की तो उसके पास कोई कमी नहीं हैं बस वो तो
निर्बाध बहना चाहता हैं अपने आप मे खुश होकर
स्वयं ही स्वयं के साथ स्वयं में…
मैं तो बहुत से प्रश्नों को मन में लिए भटकती हूँ
प्यासे चातक के समान कि अभी कोई समाधान होगा
क्योंकि कभी-कभी बहुत अपेक्षाएं हमें दुखी करती हैं
तृप्त होने का भाव आज देख रही हूँ इस झरने में
स्वयं को समझना ज्यादा श्रेयस्कर होगा
शायद यही सीख आज मिली झरने के साथ बैठ मुझे
स्वयं ही स्वयं के साथ स्वयं में…
चलते जाना हैं बस बिना रुके निर्बाध गति से
एक शिक्षा झरने से लेते हुए ही बढ़ना हैं आगे ही आगे
अपनी सच्चाई के साथ दृढ़ विश्वास को लिए
अपनो के साथ ताल मिलाकर चलते हुए जीवनमग्न
अपने कर्म को ईमानदारी से पूर्ण करते हुए
चलते रहें जीवन मंजिल तक पहुंचने के लिए
स्वयं ही स्वयं के साथ स्वयं में…