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4 Dec 2016 · 1 min read

स्वयंसिद्धा

एक ही शहर में उमादेवी का अपने बेटे के साथ ना रह कर अकेले रहना लोगों के गले नही उतर रहा था. लेकिन अपने निर्णय से वह पूरी तरह संतुष्ट थीं. इसे नियति का चक्र कह सकते हैं किंतु उन्होंने अपने जीवन में कई संघर्षों का सामना अकेले ही किया था.
जब पिता की सबसे अधिक आवश्यक्ता थी वह संसार से कूच कर गए. घर का भार उनके अनुभवहीन कंधों पर आ गया. उस संघर्ष ने जीवन को कई उपयोगी अनुभव दिए. मेहनत कर स्वयं को स्थापित किया तथा यथोचित भाई बहनों की भी सहायता की.
जब सब स्थितियां कुछ सम्हलीं तो उन्होंने माँ के सुझाए रिश्ते के लिए हामी भर दी. पति को समझने का प्रयास जारी ही था कि एक नन्हे से जीव ने कोख में आकार लेना शुरू कर दिया. वह बहुत प्रसन्न थीं. सोंचती थीं कि सदैव अपने में खोए रहने वाले पति को यह कड़ी उनसे बांध कर रखेगी. किंतु अभी संतान के जन्म में कुछ समय शेष था तभी पति सारी ज़िम्मेदारियां उन पर छोड़ किसी अनजान सत्य के अन्वेषण में निकल गए. एक बार फिर जीवन के झंझावातों का सामना करने के लिए वह अकेली रह गईं.
हाँ अब संघर्ष कम है. बेटे के फलते फूलते जीवन को देख गर्व होता है. उन्हें सबसे प्रेम भी है. लेकिन जीवन के ऊंचे नीचे रास्तों पर सदैव आत्मनिर्भरता ही उनका संबल रही. अपनी आत्मनिर्भरता को इस पड़ाव में आकर वह नही त्याग सकती हैं.

Language: Hindi
213 Views
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