****स्वप्न सुनहरे****
नटखट चंचलता मनस उतरी
उजास विहीन भोर ठहरी
लाली नभ में गहन बिखरी
जलती तपती इक दुपहरी
अक्षि दिखती झील सी गहरी
कुछ क्षण न ठहरी विभावरी
सितारा न कोई नभ में सजा
कोमल हिय तो पाषाण बना
इंद्रायुध सजता है सतरंगी
खिलते तब सुमन रंग बिरंगी
जगमग जगमग दीप्त सितारे
परे हो तब नयनों से सारे
अंतस्थल उठे इक पिपासा
पनपती हिय में जिजीविषा
कभी उन्मुक्त श्वास पर पहरे
कहीं उपालंभ उपजे गहरे
नज़रों से दूर माया नगरी
ओस की बूंदें धरा पे बिखरी
दिव्य मोती चुनती वसुधा
हाय निसदिन ये कैसी दुविधा
तीव्र उसासों से भरी ध्वनि
शुष्क बनके तरसे अवनी
प्यासे लब अमी को तरसे
पयोद एक बूंद भी न बरसे
दूर दिखता एक ही सितारा
कौन सा यह नगर हमारा
कहीं तो मधुकामिनी महकती
सिहरन सुख की दिखलाती
स्वर्णिम उज्जवल सुंदर जहाँ
जगमग ज्योत्सना मिली कहाँ
रुचिर नयन स्वप्निल सुनहरे
रह जाते कुछ स्वप्न अधूरे।।
✍️”कविता चौहान”
स्वरचित एवं मौलिक
इंदौर(म.प्र)