स्वप्न थे कुछ और हासिल कुछ है
स्वप्न थे कुछ और हासिल कुछ हैं
बिखरा बिखरा अन्तर्मन है
ये पीड़ा बस मात्र न मेरी
ये पीड़ा हर मन का धन है।
कुछ स्वप्नों को तो प्रयत्न
लाघव ने छीना ।
कुछ स्वप्नों की नींव पर
दायित्व खड़े ।
कुछ स्वप्नों पर दैव
ने अधिकार किया ।
कुछ समाज के आरेखों
की भेंट चढे ।
ये अतृप्त इच्छाएं सब
मन भित्ति में बन्द हुई हैं।
टकरातीं प्रतिध्वनि निरंतर
मन से कब अवमुक्त हुई हैं।
भला कसक हम कब तक सहते
बन्द किये मन के सब द्वार ।
निज से ही बाहर आ बैठे
करते रहे बाह्य विस्तार ।
जो जग का मानक जीवन है
बस वही कथानक दोहराते है ।
विवश ऋणों से सब श्वांसे है
बिना जिये ही मर जाते है I
सबके जीवन की ये कुण्ठा
सबकी राम कहानी है ।
होंठों में मुस्कान सहेजे
मगर नयन में पानी है।
हम समाज के सब प्रहरी हैं
आओ पुनः विचार करें ।
स्वप्न रहें न रीते अब सब
कुछ ऐसे सोपान गढ़े ।
हर एक सभ्यता का हर युग में
क्रमिक विकास जरूरी है ।
जन्म रहे जो मनु पुत्र
उन्हें दे सौभाग्य जरूरी है।