स्वपन सुंदरी
रात हुई तो आंख लगी, फिर सुबह हुयी थी सपने में।
सपने में जो देखा मैंने, फिर मै न रहा था अपने में।
अपने में मै खोया था जब, आवाज मधुर तब आयी वहाँ।
घूम वंहा जब देखा मैंने, किधर गई वो पता कहाँ ।
कहाँ -कहाँ न ढूँढा उसको, तब सुन्दर बाला मुझे दिखी।
देख उसे लगता था ऐसे, ऊपर वाले की नज्म लिखी।
लिखा हुआ था दिल में मेरे, अब केवल उसका ही नाम।
नाम पता उसका न मुझको, मुझको उससे क्या था काम।
काम देव की माया दिल में, अब उतर रही थी मेरे अंदर।
स्वपन सुंदरी से मिलकर के, स्वपन हुआ था मेरा सुन्दर।
सुन्दर उसका रूप था जैसे, खिलता हुआ सा कोई कमल।
कमल नैन होठो पर लाली, देख उसे थम गया था पल।
पल-पल उसका रूप निहारूं, आँखों में था उसके सागर।
उस सागर में थी डोल रही थी, मेरे प्रेम की छोटी गागर।
गागर से पानी था बहता, जिसमे भीग रहे थे मेरे पाँव।
पाँव पकड़ कोई मुझको खींचे, काम न आया कोई दांव।
दांव लगा के किसी ने पटका, खुल गयी थी अब मेरी आँख।
आँख भींच कर खड़ा हुआ जो, सामने थी माँ बनी सिकन्दरी।
ख्वाब वो सरे हवा हुए थे, भूल गया अब स्वपन सुंदरी।