*स्वतंत्रता संग्राम के तपस्वी श्री सतीश चंद्र गुप्त एडवोकेट*
स्वतंत्रता संग्राम के तपस्वी श्री सतीश चंद्र गुप्त एडवोकेट
जन्म 9 नवंबर 1922 – मृत्यु 22 मई 2002
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श्री सतीश चन्द्र गुप्त एडवोकेट रामपुर के गौरव हैं। रामपुर वासियों में उंगलियों पर गिने जा सकने वाले जो चंद स्वतंत्रतावादी व्यक्ति हिन्दुस्तान की आज़ादी के लिए जेल के लौह सीखचों का वरण कर सके-श्री सतीश चन्द्र उनमें से एक हैं। परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ी भारत माता को स्वतंत्र कराना उनके जीवन का महान लक्ष्य था और उसी उच्च उद्देश्य की सिद्धि के लिए वह विद्यार्थी काल में ही स्वातंत्र्य समर में कूद पड़े थे। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के शिकंजे से भारतीय जनता की मुक्ति, समाजवादी आधार पर नये भारत का नवनिर्माण और प्रजातांत्रिक मूल्यों की स्थापना के लिए संघर्ष, युवा सतीश के लिए जीवन की सर्वोच्च साधना थी। स्वतंत्रता का मार्ग अग्निपथ था और विद्यार्थी सतीश ने अपने भावी कैरियर के लिहाज से कारागार का वरण करके काफी जोखिम भरा पग उठाया था। आजादी की आग में तपते युवा सतीश चन्द्र के क्रान्तिवादी यौवन को शत-शत नमन।
श्री सतीश चन्द्र एडवोकेट का जन्म नौ नवम्बर सन् उन्नीस सौ बाईस ईसवी को रामपुर में हुआ था। उनकी हाई स्कूल स्तर तक की शिक्षा स्थानीय “स्टेट हाई स्कूल” में हुई। यह स्कूल ही आगे चलकर हामिद इण्टर कालेज बन गया था । 1938 में श्री सतीश चन्द्र इन्टर की पढ़ाई के लिए अलीगढ़ गये और वहाँ धर्मसमाज इन्टर कालेज में प्रवेश लिया। अलीगढ़ में उनकी राजनैतिक चेतना जो रामपुर में आर्य समाज और ज्ञान मन्दिर के सम्पर्क के कारण पहले ही जागृत हो चुकी थी ,को बहुत बल मिला । वह अलीगढ़ में अनेक समाजवादी – साम्यवादी कार्यकर्ताओं के सम्पर्क में आये और मार्क्स, लेनिन तथा ऍजेल्स के विचार उन्हें प्रभावित करने लगे। मगर उनको क्राँतिवादी राजनैतिक चेतना तो वस्तुतः बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पहुंच कर ही अपने चरम शिखर पर पहुंची ।
हिन्दू विश्वविद्यालय में बी०ए० की पढ़ाई के अवसर ने उनके लिए एक खुले और तीव्रता से भारतीय राजनीति में राष्ट्रीय मूल्यों के आधार पर सक्रिय स्वतंत्रतावादी परिसर में प्रवेश के द्वार खोल दिए। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का वातावरण तब इसके संस्थापक महामना पंडित मदनमोहन मालवीय के देश प्रेम और राष्ट्र निष्ठा के मूल्यों से अोतप्रोत था। हिन्दू विश्वविद्यालय प्रखर स्वातंत्र्य चेतना युक्त राजनीति का गढ़ था और राष्ट्रीय आन्दोलन को पूरे तौर पर पुष्ट कर रहा था। हिन्दू विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों का सोच आम तौर पर स्वतंत्रता और स्वराज्य के पक्ष में था और इसी सोच के अनुरूप काफी बड़ी संख्या में छात्र और शिक्षक भी सक्रिय राजनीति में लगे हुए थे। राष्ट्रीय चिन्तन धारा से जो विद्यार्थी उस दौर के विश्वविद्यालय जीवन में खास तौर पर जुड़े-उनमें अठारह वर्षीय नवयुवक सतीश चन्द्र गुप्त भी थे। हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवेश से पहले ही श्री सतीश कांग्रेस से विशेषकर “कांग्रेस सोशलिस्ट ग्रुप” से वैचारिक धरातल पर जुड़ने लगे थे। वह मथुरा में 1939 में हुए यू०पी० कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में एक दर्शक – श्रोता के रूप में पहले ही जा चुके थे। हिन्दू विश्वविद्यालय में पहुंचकर तो महामना मालवीय जी के वात्सल्यपूर्ण संरक्षण में विश्वविद्यालय के अन्य छात्रों की तरह वह भी स्वयं को एकात्म भारत माँ का सपूत सिद्ध करने में और भी तल्लीनता से जुट गए। डा० सर्वपल्ली राधाकृष्णन् तब उन दिनों विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर थे। यूं तो किसी भी विश्वविद्यालय परिसर में पं० मदनमोहन मालवीय और राधाकृष्णन की संयुक्त रूप से सतत उपस्थिति ही देश और समाज के लिए त्याग की समर्पित निष्ठा उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त होनी चाहिए तथापि मालवीय जी की इच्छानुसार हिन्दू विश्वविद्यालय में समय-समय पर राष्ट्रीय नेताओं के आगमन और व्याख्यान आदि की व्यवस्था भी रहती थी। श्री सतीश चन्द्र को आज भी स्मरण है कि विश्वविद्यालय प्रवास को उनकी ढाई-तीन साल की अवधि में आचार्य कृपलानी तो कई बार भाषण देने आये ही थे, साथ ही महात्मा गाँधी, पं० जवाहर लाल नेहरू, आचार्य नरेन्द्र देव और डा० राजेन्द्र प्रसाद भी एक एक बार विश्वविद्यालय में व्याख्यान देने आए थे। राष्ट्रीय नेताओं की उपस्थिति छात्रों में राष्ट्रीयता की नई चेतना जगा देती थी और उसका प्रभाव माहौल पर काफी समय तक बना रहता था। विद्यार्थी सतीश चन्द्र इस परिवेश-प्रवृत्ति को गहराई से आत्मसात करते जा रहे थे। विद्यार्थी जीवन में ही औपचारिक पढ़ाई के साथ-साथ राजनीतिक विषयों पर उनका अध्ययन भी बहुत अधिक होता जा रहा था। कितनी पुस्तकें पढ़ीं, संख्या बताना ,नाम गिनाना संभव नहीं है। तो भी गांधी और नेहरू की आत्मकथायें ,नेहरू की विश्व इतिहास की झलक, जान गंथर की ‘इनसाइड एशिया’ एवं ‘इन साइड यूरोप, पं० सुन्दर लाल की ‘भारत में अंग्रेजी राज’, मुकंदी लाल बार-एट-ला की ‘साम्राज्यवाद’, लेनिन की ‘स्टेट एन्ड दि रिवोल्यूशन’, एंजिल्स की ‘फैमिली, प्राइवेट प्रापर्टी एन्ड दि स्टेट’ तथा जय प्रकाश नारायण के पर्चे फीडम इज इनडिविजिविल’ के नाम लिए जा सकते हैं।
मुख्यतः समाजवादी विचारधारा का प्रभाव उनके अध्ययन और सक्रिय जीवन पर पड़ रहा था। आचार्य नरेन्द्र देव और जयप्रकाश नारायण उनके हीरो थे और #प्रोफेसर_मुकट_बिहारी_लाल से जो उस समय हिन्दू विश्व विद्यालय में प्राध्यापक थे वह समय-समय पर प्रेरणा और मार्ग दर्शन ग्रहण करते थे। प्रोफेसर लाल ऊँचे दर्जे के विचारक, निर्लोभी, त्यागी और तपस्वी व्यक्ति थे और उनके सान्निध्य का व्यक्ति के आत्म परिष्कार की दृष्टि से निश्चय ही बड़ा महत्व था। श्री सतीश चन्द्र को तेजस्वी राजनीतिक परिवेश हिन्दू विश्वविद्यालय में सहजता से सुलभ हो रहा था और इसी के अनुरूप उनको स्वयं की वृत्ति भी बनती जा रही थी। छात्रों में आपसी चर्चा विचार विमर्श उठते, बैठते. खाते-पीते सदैव स्वराज्य और स्वातंत्र्य आन्दोलन पर ही केन्द्रित होता था। सर्व श्री बेनी प्रसाद माधव और राजनारायण उस समय हिन्दू विश्वविद्यालय के अपेक्षाकृत सीनियर छात्र थे, तो भो उनसे श्री सतीश चन्द्र का संपर्क होता रहता था ।
#9_अगस्त_1942 को “भारत छोड़ो” आन्दोलन की ऐतिहासिक शुरुआत हुई। हिन्दू विश्वविद्यालय के #कुलपति_डा०_राधाकृष्णन् विश्वविद्यालय में उस दिन रविवारीय गीता-प्रवचन का शुभारम्भ कर रहे थे। “धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे” के शब्दों के साथ डॉक्टर राधाकृष्णन ने गीता प्रवचन आरंभ किया था । श्री सतीश चंद्र एडवोकेट ने स्मृतियों को ताजा करते हुए लेखक को बताया था कि प्रवचन के दौरान ही डॉ राधाकृष्णन को किसी ने भारत छोड़ो आन्दोलन के आरम्भ होने और गांधीजी आदि नेताओं की गिरफ्तारी की सूचना दी। समाचार सुनते ही डॉक्टर राधाकृष्णन ने प्रवचन रोक दिया। बोले “अब गीता का प्रश्न ही नहीं रह गया है #महाभारत_शुरू_हो_गया_है ।” उन्होंने कहा कि वे अपनी जिम्मेदारी समझते हुए अब जैसा समझे करें मगर परिणाम ध्यान में अवश्य रखें ।
“एक तरह से डा० राधाकृष्णन ने ” श्री सतीश चंद्र कहते है “हम छात्रों को राष्ट्रीय आन्दोलन में भागीदारी की परोक्ष रूप से न सिर्फ अनुमति ही दे दी थी अपितु कई मायनों में प्रोत्साहित भी कर दिया था। ”
उसी दिन नवयुवक छात्रों की टोली बनारस के गांवों में आंदोलन का शंखनाद करने के लिए निकल पड़ी। श्री सतीश चन्द्र भी उनमें से एक थे। चार-पांच दिन तक बरसात के इस मौसम में वह गांव-गांव राष्ट्रीयता की जगाते रहे और जब हिन्दू विश्वविद्यालय लौटे तो राष्ट्रीयता और स्वतंत्रता के रंग में पूरी तरह रँग चुके थे। विश्वविद्यालय के स्वतंत्रतावादी क्रांतिवादी छात्रों में उनका नाम प्रमुखता से लिया जाने लगा था। 1942 में ही सारे देश को हिला देने वाली घटना 6 नवम्बर को जयप्रकाश नारायण का हजारीबाग जेल से भाग निकलना था। खासकर बनारस और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में तो इस क्रांतिकारी कार्य ने 9 अगस्त की भाँति ही चेतना की एक नई लहर पैदा कर दी थी। श्री सतीश चन्द्र बताते हैं कि जेल से भाग कर जय प्रकाश जी बीच में रुकते -रुकते हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर मुकट बिहारी लाल जिन पर उनका बहुत विश्वास था ,के निवास पर छिपने के लिए आये थे और प्रोफेसर लाल के शायद रामपुर में होने के कारण, फिर एक अन्य व्यक्ति, प्रो० लाल के सहयोगी श्री फूल सहाय वर्मा के पास चले गए थे। तात्पर्य यह है कि श्री सतीश चन्द्र के विद्यार्थी जीवन में हिन्दू विश्वविद्यालय भारतीय राजनीति के क्रांन्तिवाद का विश्वसनीय केन्द्र था।
शायद फरवरी 1943 में महात्मा गांधी ने #आगा_खाँ_महल में उपवास शुरू किया था। महात्मा जी की सहानुभूति में विश्वविद्यालय के दस छात्रों ने भी उपवास रखना प्रारम्भ कर दिया। इन दस छात्रों में
सतीश चन्द्र और रामपुर के ही एक अन्य छात्र श्री नंदन प्रसाद भी थे। बाद में मालवीय जी के मना करने और आग्रह करने पर ही यह उपवास छ दिन तक चलने के बाद बंद हुआ । तो भी विश्वविद्यालय में इससे माहौल काफी गर्म और चेतना पूर्ण बन गया था । दिसम्बर 1942 में श्री सतीश चंद्र कलकत्ता में आयोजित एक भूमिगत सम्मेलन में भाग लेने के लिए गये । इस सम्मेलन में सारे भारत के कुल पच्चीस-तीस प्रतिनिधि “युवा और स्वतंत्रता आंदोलन की दिशा” पर सोचने के लिए इकट्ठा हुए थे। हिन्दू विश्वविद्यालय से श्री सतीश चंद्र अकेले प्रतिनिधि थे। मगर सम्मेलन अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हो सका क्यों कि न जाने कैसे सम्मेलन की भनक पुलिस को लग गई और इसके संयोजक प्रोफेसर हुमायूं कबीर और आयोजकों में प्रमुख श्री निहार रंजन दत्त राय गिरफ्तार हो गए थे ।
आजादी की लड़ाई दिनों दिन तेज होती जा रही थी और विश्वविद्यालय के अन्य सहयोगी छात्रों के साथ विद्यार्थी क्रांति पथ पर कदम तेज करते जा रहे थे। हिन्दू विश्वविद्यालयों के छात्रों को हवाई जहाज चलाना सिखाने का एक केंद्र है वहां हुए एक विस्फोट को आगे चलकर पुलिस द्वारा #हिंदू_यूनिवर्सिटी_कांस्पिरेसी_केस का नाम दिया गया । विद्यार्थी सतीश भी इस मामले में पुलिस की निगाहों में आ गये थे। उनकी गिरफ्तारी लगभग तय थी मगर विश्वविद्यालय प्रशासन नहीं चाहता था कि कोई भी छात्र परिसर के भीतर से गिरफ्तार हो । होते – होते 15 मार्च आ गई । विश्वविद्यालय का सत्र समाप्त हो रहा था। विद्यार्थी सतीश चंद्र अपने घर रामपुर आ गए । विश्वविद्यालय में छाए सन्नाटे को चाहे किसी भी तरह तोड़ने के हामी सतीश चंद्र को बनारस से जारी एक वारंट के आधार पर 4 अप्रैल सन 1943
ईसवी की दोपहर लगभग 11 बजे रामपुर में उनके निवास पर गिरतार कर लिया गया। एक युवक जिसकी उम्र अभी मुश्किल से 21 साल की भी नहीं थी और जो अभी विद्यार्थी ही था क्रांति पथ को अंगीकृत कर कारागार में प्रविष्ट हो गया । यह मातृभूमि की पुकार का असर था। रामपुर की जेल में उन्हें एक बैरक में बिल्कुल अकेले चार दिन रखा गया और फिर 8 अप्रैल को मुरादाबाद ले जाया गया। मुरादाबाद में जिस बैरक में उन्हें रखा गया उसमें करीब 60 – 70 राजनैतिक बंदी थे जिनमें सर्वश्री प्रोफेसर रामसरन, राम गुलाम, दाऊदयाल खन्ना, चौधरी शिव स्वरूपसिंह और चौधरी बदन सिंह के नाम विशेष रूप से लिए जा सकते हैं। #मुरादाबाद_की_जेल में करीब 17 दिन श्री सतीश को रखा गया। सभी राजनैतिक बन्दियों में इस अल्प अवधि में ही काफी भ्रातृभाव उत्पन्न हो गया था और परस्पर मित्रता-स्नेह प्रगाढ हो गया था। प्रो. रामसरन ने जो विद्यापीठ के प्रोफेसर और गांधी जी के सहयोगियों में से एक थे, श्री सतीश चन्द्र को गुजराती भाषा कारागार में ही सिखाई थी। 25 अप्रैल को श्री सतीश चन्द्र को #बनारस_जेल ले जाया गया और जहाँ छूटने तक रहे। बनारस जेल के सहबंदियों में सर्वश्री राजनारायण ,प्रभु नारायण, सिद्धराज ढड्डा ,आजमगढ़ के विश्राम राय, बलिया के मुरली मनोहर सिंह आदि के नाम भी सतीश चन्द्र को आज भी विशेष रूप से स्मरण हैं। जेल जीवन को सह पाना हर एक के लिए सहज नहीं होता। बहुतेरे बन्दी माफी मांग कर बाहर आ जाते थे और अनेक पुलिस के गवाह बनकर विश्वासात पर उतारू हो जाते थे। ऐसे अनेक खट्टे-मीठे अहसास सतीश चन्द्र ने जेल की चारदीवारी के भीतर महसूस किए । मगर श्री सतीश चन्द्र अत्यन्त सहजता से जेल जीवन की अवधि काटते रहे। वह स्वतन्त्रता का तप कर रहे थे और भावी भारत के स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक नव जीवन के निर्माण के लिए अपनी जलती जवानी की आहुति अर्पित कर रहे थे। श्री सतीश चन्द्र द्वारा स्वतन्त्रता का यह महायज्ञ #4_अप्रैल_1943_से_13_जुलाई_1945 तक चलता रहा। सवा दो साल के कारावास से हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्ययन के द्वार उनके लिए हमेशा-हमेशा के लिए बन्द हो गए। जुलाई में ही यह रामपुर लौट आए । रामपुर ने अपने इस महान सपूत को बाँहों में भर लिया। स्थानीय #ज्ञान_मन्दिर_पुस्तकालय में श्री सतीश चन्द्र का ऐतिहासिक अभिनन्दन समारोह हुआ। श्री #नन्दन_प्रसाद का
भी अभिनन्दन हुआ था जो श्री सतीश से छह महीने पहले ही जेल मे छूट कर आए थे। ज्ञान मन्दिर में उस अत्यन्त हृदयस्पर्शी और भावासिक्त जनसभा में #आचार्य_कैलाश_चन्द्र_देव_बृहस्पति ने भी सतीश चन्द्र के स्वागत और सम्मान में कविता पाठ किया था। यह वही ज्ञान मन्दिर था जिससे श्री सतीश भावनात्मक आधार पर बचपन से ही जुड़े हुए थे और इसमें पुस्तकें पढ़ने और विचार गोष्ठियों में भाषण सुनते-सुनाते राजनीतिक और राष्ट्रीय चेतना से भर उठे थे।
ज्ञान मन्दिर और आर्य समाज रामपुर में राष्ट्रीय चेतना जगाने के बहुत बड़े माध्यम रहे हैं। श्री सतीश की राजनीतिक चेतना वस्तुतः यहीं से निःसृत हुई थी। आर्य समाज रामपुर के कार्यकलापों को देखते-सुनते उनका बचपन-किशोरावस्था बीती थी। ‘आर्य कुमार सभा में तो वह अच्छे खासे सक्रिय भी रहे थे। यह सभा सोलह साल के किशोरों ने खड़ी की थी और श्री हरिशचन्द्र आर्य तब उन दिनों इसके अध्यक्ष थे। रामपुर में जहां खुल कर राजनीतिक स्वतन्त्रता की बातें बहुत कम हो पाती थीं, आर्य समाज काफी हद तक राष्ट्रीयता का खनाद करने में सफल रहा था।। देखा जाए तो ज्ञान मन्दिर और आर्य समाज दोनों ही संस्कृति और धर्म के साथ-साथ देश प्रेम, राष्ट्रनिष्ठा और स्वतन्त्रता – राष्ट्रीयता की चेतना मुख्य रूप से जगा रहे थे। जब 1949 में लखनऊ विश्व विद्यालय से एलएल.बी. करने के बाद श्री सतीश चन्द्र रामपुर में स्थाई रूप से बसकर वकालत करने लगे तो ज्ञान मन्दिर में वह विशेष सक्रिय रहे । 12मई 1951 को ज्ञान मन्दिर में श्री जयप्रकाश नारायण को बुलाने के पीछे उनका बहुत बड़ा हाथ रहा था। वह दो बार शायद 1956-57 में और 1959-60 के आस-पास ज्ञान मन्दिर के अध्यक्ष भी बने थे। । 1960 के आस-पास जब ज्ञान मन्दिर रजिस्टर्ड हुई और इसका संविधान बना तो इस सब में श्री सतीश चन्द्र जी वकील के तौर पर निःस्वार्थ भाव से संस्था की सेवा के लिए सदैव समर्पित रहते थे और संस्था के विकास उन्नति के लिए उन्होंने उन दिनों बहुत श्रम किया था। ज्ञान मन्दिर श्री सतीश चन्द्र जी की चिर ऋणी रहेगी और कृतज्ञ रहेगा रामपुर का वह समाज जिसमें सांस्कृतिक चेतना के प्रसार के लिए
उन्होंने ज्ञान मन्दिर के माध्यम से काफी काम किया है। यह बात बहुत कम लोग जानते होंगे कि श्री सतीश हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं
में भी जाते थे और अक्टूबर 1940 में बनारस के एनी बेसेंट कॉलेज में लगने वालेआर. एस.एस. के पाँच दिवसीय कैंप में भी वह शामिल हुए थे। कैम्प में पधारने प्रमुख नेताओं में सर्वश्री गुरू श्री, भाऊराव देवरस ,लखानी जी व विश्वनाथ लिमये के नाम उन्हें आज भी स्मरण हैं। श्री सतीश चंद्र जीवन के क्रम में संघ और इसके विचारों से सहमत नहीं हो सके और उनके चिन्तन विचारों को दिशा दूसरी ही रही, तो भी वह मानते हैं कि संघ में अनुशासन था, स्वयंसेवको में अमीर गरीब, जाति-पाँति ऊंच-नीच के भेद से परे समान और सम व्यवहार था और देश भक्ति पूर्ण भावना थी।
जुलाई १९४५ में जेल से लौटने बाद श्री सतीश पूरे पर रामपुर के राजनैतिक वातावरण में रस लेने लगे । वह एक क्रान्तिवादी राजनीतिक के रूप में अपनी पहचान कायम करा चुके और रामपुर के राजनैतिक जीवन को नई राष्ट्रीय चेतना-स्फूति से भरने में लगे हुए थे। शायद अप्रैल 1946 को बात रही होगी । अनाज की उन दिनों काफी कमी थी । गल्ला वसूली के मामले में किसानों से काफी सख्ती बरती जा रही थी। रामपुर के पटवाई क्षेत्र के किसानों ने इस गन्ना वसूली की सख्ती के खिलाफ सर्वश्री झंडूसिंह और ठाकुरदास के नेतृत्व में संघर्ष पथ पर कदम बढ़ाया। किसानों के इस आन्दोलन को रामपुर शहर में प्रवेश से पहले ही रोक दिया गया। निहत्थे किसानों पर रियासती सरकार की गोलियाँ बरसीं और एक किसान गोली से मारा गया। युवक सतीश की आत्मा यह सब देख – सुनकर चीत्कार कर उठी। उन्होंने तत्काल मुरादाबाद जाकर पी०टी०आई० के संवाददाता को यह खबर सुनाई और इस तरह यह घटना सारे भारत में जानी सुनी जा सकी। किसान आन्दोलन तो रुक गया, मगर यह एक राजनैतिक चेतना रामपुर में पैदा कर गया।
मई 1946 में ही रामपुर में #मजलिस_ए_इत्तेहाद नामक संस्था बनी। किसान आन्दोलन की पृष्ठभूमि से उपजी यह संस्था वस्तुतः स्वराज्य और प्रजातंत्र की छिपी-दबी आकांक्षाओं को राजनैतिक रूप से बाहर ला सकी । मजलिस-ए-इत्तेहाद की चेतना ने आगे चलकर नेशनल कांफ्रेंस को जन्म दिया जो आल इंडिया स्टेट पीपुल्स कांफ्रेस से सम्बद्ध हुई । मजलिसे इत्तेहाद में श्री सतीश चंद्र सेक्रेटरी के रूप में काम करते थे और इसी पद पर उन्होंने आगे चलकर #नेशनल_कांफ्रेस में भी काम किया। मजलिस-ए-इतेहाद और नेशनल कांफेन्स राष्ट्रीय विचारों की भारत समर्थक और प्रजातंत्रवादी संस्थाए’ थीं। विचारों के प्रसार के लिए संस्था पैम्फलेट बांटती थी और सभाएं करती थी जो पान दरीबे और किले के सामने वाले पुराने बस स्टैण्ड में होती थीं। सीमित दायरे में ही सही रामपुर में प्रजातन्त्र की चेतना बढ़ रही थी। श्री सतीश चन्द्र का इसमें काफी बड़ा हाथ था। मजलिस-ए-इत्तेहाद को सतीश चन्द्र और कई दूसरे युवक “#प्रजा_मंडल” का नाम देना चाहते थे। इसी प्रजा मंडल के नाम से यह राष्ट्रीयतावादी संगठन अन्य दूसरी रियासतों में काम कर रहे थे। मगर एक “हिन्दी’ “नाम पर सहमति न हो सकी। विशिष्ट नाम पर जोर न देते हुए नेशनल कांफ्रेंन्स’ नाम को अपना लिया गया। नेशनल कांफ्रेस नाम अपनाने का एक कारण यह भी था कि यह नाम कश्मीर में शेख मौ० अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेस के कारण काफी प्रसिद्ध भी हो चुका था । रामपुर में मजलिस-ए-इत्तेहाद- नेशनल कांफ्रेस के बहुत शुरुआत के अपने सहयोगी कार्यकर्ताओं में सर्वश्री मौलाना अब्दुल बहाव खाँ,मौलाना अली हसन खां, फजले हक खां, मुशव्वर अली खां, शान्ति शरण,कृष्ण शरण आर्य, रामेश्वर सरन गुप्त, , नवी रजा खां, नन्दन प्रसाद, पंडित देवकी नंदन, देवकी नंदन वकील, राधेश्याम वकील, सैफनी के परशुराम पांडेय और घाटमपुर के ठाकुर साहब के नाम श्री सतीश चन्द्र जी को आज भी स्मरण हो आते हैं। भारत समर्थक मनोवृत्ति श्री सतीश चन्द्र के मन-मस्तिष्क में बसी थी ।
#4_अगस्त_1947_को_रामपुर में भीषण दंगा और मारकाट हुआ । हत्या के बादल भारत विभाजन के अंधेरे से पहले ही रामपुर में घिर आये। रामपुर रियासत को पाकिस्तान में मिलाने का अवैध दबाव डालने की यह एक साजिश थी। केन्द्र सरकार के मिलिटरी पुलिस बल की मदद से वह गदर ठंडा हो सका। बाद में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य श्री रघुनन्दन सरन रामपुर आये थे और उन्होंने नेशनल कॉन्फ्रेंस के प्रतिनिधियों को बुलाकर #घटना_की_रिपोर्ट मांगी। यह रिपोर्ट श्री सतीश चन्द्र ने लिखी। अपनी रिपोर्ट में उन्होंने रामपुर रियासती राजपरिवार के कतिपय अत्यन्त शक्तिशाली स्तम्भों की पाक परक मनोवृत्ति को दुर्घटना के लिए जिम्मेदार बताया था । उन्होंने रिपोर्ट में यह भी लिखा था कि वर्तमान रामपुर प्रशासन की भी काफी कमजोरी इसमें रही है। और क्या इस सच्चाई को छिपाया जा सकता है कि रामपुर रियासत के प्रधानमन्त्री कर्नल बशीरुद्दीन जैदी 1946 के आसपास
“मुस्लिम लीग प्लानिंग कमीशन” के मेम्बर रह चुके है ? बहरहाल, श्री जैदी के इंगलैंड में सहपाठी रह चुके श्री रघुनन्दन सरन को दी गई यह रिपोर्ट-कांग्रेस केन्द्रीय दफ्तर तक नहीं पहुंच पाई।
नेशनल कॉन्फ्रेंस रामपुर में आगे बढ़ती रही मगर उससे पहले कि श्री सतीश इससे आगे की गतिविधियों में गहराई से और भी ज्यादा सक्रिय होते ,वह लखनऊ में एल-एल०बी० करने चले गए। 1949 में जब एलएल.बी. पास करके रामपुर लौटे तो देश न सिर्फ आजाद हो चुका था वरन रामपुर रियासत भी भारतीय संघ में विलीनीकरण की मन्जिल अन्तिम रूप से तय कर चुकी थी। इस मोड़ पर श्री सतीश चन्द्र ने वकालत के पेशे में अपना अधिकांश समय देने का निश्चय कर लिया। तो भी राजनीति से उनका जुड़ाव बाद में भी दस-पन्द्रह सालों तक तो बना ही रहा। रामपुर में सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से वह एक रहे हैं और 1952 या 53 में इसके सेक्रेट्री भी रहे । डा० राममनोहर लोहिया और आचार्य नरेन्द्र देव से उनका सम्पर्क यदा-कदा फिर भी बना रहा।
पत्रकारिता से श्री सतीश चन्द्र के जुड़ाव का उल्लेख किए बगैर यह लेख अधूरा ही रहेगा। “नेशनल हैरल्ड” से तो उनका सम्बन्ध रहा ही है और 1945 से 1947 तक वह इसके संवाददाता रहे और इसमें तथा कलकत्ता से प्रकाशित ‘विश्वमित्र’ में उनके कई लेख छपे हैं। साथ ही लखनऊ प्रवास के दौरान यहाँ के दैनिक ‘अधिकार’ के संपादकीय विभाग में उन्होंने काम किया है ।
इस प्रकार कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि परतंत्र भारत की पुकार पर युवा सतीश चन्द्र ने अपने जीवन को न्यौछावर करने का महान व्रत लिया था। उन्होंने समय की चुनौती को साहस पूर्वक स्वीकार किया और भारत माता की मुक्ति के लिए पूरी शक्ति से संघर्ष किया। दासता के युग ने उन्हें अवसर दिया कि वह माँ भारती की सेवा कर सकें और उन्होंने उस अवसर का भरपूर उपयोग त्याग और तप पूर्वक किया। स्वतंत्रता संग्राम के तपस्वी श्री सतीश चन्द्र को जो आजकल काफी अशक्त और अस्वस्थ हैं,लेखक का विनम्र प्रणाम ।
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(भेंटवार्ता तिथि: 6 नवम्बर 1985)