स्पर्श तुम्हारा
सुबह की तपती धूप जैसी
तुम्हारी देह का
स्पर्श मैं कैसे पाऊँ।
हवाओं की शीतल सरसराहट में
फैले तुम्हारे
प्रेम चुम्बन का
स्पर्श मैं कैसे पाऊँ।
तुम्हारी पलकों के उठने से
आवाज आती है मेरे पास
ज्यों ही मुंदती हैं
छा जाता
केलाहल भरी खामोशी का राज
चहता हूँ सदा
तुम्हारी पलकों का तप्त
स्पर्श मैं कैसे पाऊँ।
नजदीक तुम्हारे मैं
जितना आता हूँ
अपने आप को उतना ही
दूर बहुत दूर पाता हूँ
तभी अचानक
इस विराट शून्य से
कोई आवाज है आती मेरे पास
और झटके से बदल जाती करवट
पुष्पों के माफिक दिखती
अंगार सी तुम्हारी देह का
स्पर्श मैं कैसे पाऊँ।
-✍श्रीधर.