स्त्री की स्वतंत्रता
स्त्री की स्वतंत्रता कोई नहीं चाहता, ये बात काफी हद तक सत्य है। जहां एक ओर हर मर्द स्त्री को घर गृहस्थी की जिम्मेदारी, बच्चों का पालन-पोषण, और खाना पकाने से लेकर साफ-सफाई, भोग-बिलास के लिए सीमित दायरे में देखना चाहता है, जबकि मर्द यह भूल जाता है कि स्त्री की भी अपनी इच्छाएं, महत्वाकांक्षायें और सपने होते हैं जिन्हें वो जिम्मेदारियों के तले पूरा नहीं कर पातीं और अपनी स्वतंत्रता को ताक पर रख कर खुद को घर गृहस्थी में झोंक देती हैं। जबकि आज के परिवेश में स्त्री मर्द से किसी भी क्षेत्र में कम नहीं, उनके भी अपने सपने हैं, जिन्हें वो पूरा करना चाहती हैं, वो भी जीवन में आगे बढ़ना चाहती हैं, उनको भी अपनी जिंदगी को अपने तरीके से जीने की प्रबल इच्छाएं होती हैं, और ये उनका अधिकार भी है, पर बात जब उनकी स्वतंत्रता की आती है तो ये मर्द को किसी भी तरह रास नहीं आती। क्योंकि मर्द स्त्री को उस दायरे से ऊपर उठकर देखना हीं नहीं चाहता, जबकि आज के दौर में स्त्री घर गृहस्थी के साथ कार्य क्षेत्र में भी अपनी धाक जमा रही हैं, पर सच्चाई यही है कि मर्द स्त्री को स्वतंत्रता का अधिकार नहीं देना चाहता। दरअसल इंसान की सोच ही इतनी है कि अगर पुरुष की सब जगह पहचान अच्छी है, लोगों से ज्यादा संबंध हैं तो उसका व्यवहार अच्छा है, और वहीं स्त्री की सब जगह पहचान है, और वो आगे बढ़कर अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाना चाहती है तो उसके चरित्र पर उंगलियां उठने लगती हैं। लोग कहते हैं कि औरत कार, घर, और बेशुमार दौलत मांगती है, पर मेरा मानना है औरत सिर्फ इज्जत, मान-सम्मान, प्यार और वक्त मांगती है। दोस्तों एक स्त्री ने पुरूष से बड़ी कड़वी बात पूछी कि तुम शाम को घर देर से आये तो मुझे फिक्र हुई, और में देर से घर आई तो तुम्हें शक क्यों??? जबकि पुरुष को स्त्री की भावना, इज्जत, सपने और महत्वाकांक्षाओं का भी भरपूर सम्मान करना चाहिए। स्त्री की अपनी आजादी पर पहरा हमारे समाज का बहुत कड़वा सत्य है। जिसको हमें बदलना चाहिए, सिर्फ और सिर्फ हमें अपनी सोच में बदलाव लाना होगा।