स्त्री की दुविधा
जब कभी मैं किसी के भी माता पिता की बीमारी के
बारे में सुनती हूं और जब ससुराल वाले कहते हैं
क्या करोगी मायके जाकर जब देखो बीमार हो जाते हैं ?
सब केवल नौटंकी करते हैं नहीं जाना है वहां
मन इतना व्यथित हो जाता हैं कुछ समझ में नहीं आता
बगावत करने को दिल करता है सब कुछ छोड़ने को
हम स्त्रियाँ इतना सहती ही क्यों हैं ?
क्या हमारे माता पिता कुछ नहीं है उनके लिए
उनके माता पिता को जरा सी छींक भी आ जाए तो
घर सिर पे उठा लेते हैं हम तो भेदभाव नहीं करतेे
उनकी मां को अपनी मां से बढ़कर सेवा करते हैं
उनके पिता को अपने पिता से ज्यादा मान देते हैं
फिर वो क्यों नहीं ऐसा करते ?
उनके भाई बहन उनके लिए दुधमुहे बच्चे हैं तो
क्या हमारे भाई बहन कुछ भी नहीं है
उनकी बहनें आती है तो बिस्तर पर ही सब कुछ चाहिए
हमारी बहनें आए तो घर के हर काम में साथ लगी रहती हैं
हम सब कुछ तो करते है उनकी बहनो के लिए
अपनी बहन क्या अपने बच्चों की तरह दुलार करते है
उनके भाई को अपना बेटा मान कर दुलार करते है
पर हमारे भाई बहन को देख कर सब मुंह बना लेते हैं
हम इतनी बेबस क्यों हो जाती हैं ?
बस रिश्ते को बचाने के लिए हम न जाने कितने
अपमान, दुःख, गालियां,मार तक सह जाती हैं
शकुंतला
सर्वाधिकार सुरक्षित
अयोध्या (फैज़ाबाद)