‘सोना’ “सोना” है….
ऐसा भी क्या सोना,
जो अपना कर दे रोना।
भूख नहीं,प्यास नहीं,
फ़िर भी सोने की आस यँही।
उषा देखा ना,प्रातः न देखा,
यही है तेरा लेखा – जोखा?
न पाया सिहरन ठंडक की,
इतना क्या हो गया आलसी?
बोल – बोलकर जाग उठाया,
दोष भी तुमने इनमें पाया।
अब क्या पूरी दिन खायोगे,
तब भी तुम ना पछतायोगे।
ये कैसी आदत लगी है,
दिन में भी रात जगी है।
ना टहलो,ना घूमोगे,
डाँट थोड़ी सी सहलोगे।
तुम्हें पता ना बात क्या है,
दिन में भी ये रात क्या है।
उठ जा भैया, देर हुई,
खाने की भी बेर हुई।
सुन डाँट तुम उठते हो,
नींद की मौजे लूटते हो।
ऐसी भी क्या बात है,
नींद तुम्हारे साथ है।
सो – सोकर नींद खायोगे?
उठने पर फिर पछतायोगे।
किस मिट्टी के हो बने,
बिस्तर पर भी नींद सने।
तुम तो आधे नींद में हो,
निश्चित पूरी मौत है।☺️
बात एक बतलाओ ज़रा,
सोने से हो जाते खरा?
उठते साथ ही खाते हो,
कल भी का पचा लेते हो।
दाद देनी तुम्हें पड़ेगी,
नींद भी तुम्हरे पैर पड़ेगी।
माफ़ कर दे तू मुझे,
मेरी सज़ा मिले क्यों तुझे।
बस भी करो भोर हुई,
उठने में अब देर हुई।
——सोनी सिंह
बोकारो(झारखंड)