सृजन
उभरती है
मानस पटल पर
जब भी कोई कविता
मानों अभी अभी पी ली हो
कोई सरिता
बहा कर ले जाती है
ख़्यालों को
अपनी चंचल तरंगों के साथ
टकराती है कभी विशाल चट्टानों से
कोमल प्रियतमा सी इठलाती है कभी
भर जाना चाहती है स्वयं
वेदना के रंध्रों में,
भीग जाती है कभी ख़ुद ही
नमक मिले पसीने में,
कभी घुटने टिका देती है
बेबस पिता की
दुख से कातर हुई आँखों के सामने
नतमस्तक हो जाती है कभी
सीमा पर मारे गए जवान की
अंतिम यात्रा के आगे
चाहती है
ख़ुद को सुखा कर होम कर देना
ताकि सींचे जा सकें
आसमान तकते किसानों के खेत
भरी जा सकें
सूखी बंजर दरारें,फूलों में सुगंध
जवान हुई बेटियों की
हथेलियों में रंग
बहना चाहती है
मछली की साँसों में
मछुआरों की अभिलाषाओं में
आँचल में सिमटी रसधार में
तर कर देना चाहती है
भूख से बिलखते
बच्चे की सूखी रोटी को,
अकस्मात झंझकोर देती है
नाविकों को जो
भटक रहे होते हैं
अपने लक्ष्य के मार्ग से,,
समाहित हो जाना चाहती है
स्याही के स्याह सागर की
धाराओं में
ताकि
सृजित हो सके
नवीन सम्भावनाएं,,,,