झरोखों से झांकती ज़िंदगी
अपने दरीचे से जब मैं
देखती हूं दुनियां
तो लगता है जैसे कि
कि बिखरीं हैं यही बस
सारे जहां की खुशियां
हां कभी कभी
घनघोर घटाओं की गर्जन से
खडकतीं हैं खिडकियां
पर हसीं लगतीं हैं जब
बयार संग बहकती हैं खिडकियां
आते जाते पंछियों का कलरव
उनके पंखों पर रंगों का वैभव
सामने दूर क्षितिज की मुस्कान
हरियाली के झोंकों का आह्वान
सहर के सूरज का गुणगान
और निशापति का नीरव विधान
क्या सुनाऊं मैं रौशनी की चमक
या मधुर महक का बयान
बारिश से धुले घरों की रवानगी
या लहलहाते सागर की बानगी
झरोखों से झांकती है जिंदगी
ये खुशनुमा लम्हों की बंदगी.
©️ रचना ‘मोहिनी’