सूर्य पुत्र कर्ण की पीड़ा
मेरी माता कोमार्य अवस्था में,,
भूल कर बैठी ।
और मेरा जन्म हुआ ।
क्या इसमें मेरा कोई दोष था ?
मुझे नदी में बहा कर ,
भाग्य के भरोसे छोड़ दिया,
क्या मेरा दोष था ?
निज माता पिता के रहते ,
मुझे किन्हीं सज्जन दंपति ने ,
पाला पोसा,
उनके प्यार और ममता में ,
कोई कमी न थी ।
फिर भी एक दर्द मन में पलता रहा ।
मेरा क्या दोष था ?
शिक्षा दीक्षा हेतु किसी श्रेष्ठ ,
गुरु का सानिध्य पाना चाहता था ।
गुरु द्रोणाचार्य के पास गया ,
ठुकराया गया ।
जाति का प्रश्न उठा तो ,
उसमें भी मेरा दोष था ?
द्रोणाचार्य से ठुकराया हुआ ,
महागुरु श्री परशुराम के पास गया।
सैन्य शिक्षा प्राप्त कर अर्जुन से ,
श्रेष्ठ धनुर्धारी बनना चाहता था ।
ईर्ष्या ही सही ,परंतु होती ही है हर मानव को ,
क्या यह मेरा दोष था ?
उन्होंने कृपा भी की मुझपर बहुत सारी ।
कई अस्त्र शस्त्रों से पारंगत किया ।
मगर मात्र एक भूल से मुझसे रूष्ट हो गए वो ,
और अपनी सारी कृपा ,ज्ञान ,शिक्षा दीक्षा,
का संचय मुझसे छीन ले गए वो ।
हां ! यह मेरा दोष अवश्य था ।
परंतु मैं मरता क्या न करता ,
मुझमें युद्ध कला की प्रबल इच्छा थी ।
आखिर मुझमें किस बात की कमी थी !
मुझमें राजपुत्रों के मुकाबले शोर्य और ,
वीरता में कोई कमी न तो थी ।
मैं सूत पुत्र था बस यही मेरा दोष था ।
हां! मैने मैने महा गुरु परशुराम जी से,
असत्य कहा था की मैं ब्राह्मण हूं।
क्योंकि मुझे किसी भी रीति से,
युद्धकला की शिक्षा लेनी थी।
परंतु मेरे मन में कोई कपट न था।
अपने गुरु पर अगाध श्रद्धा ,विश्वास और ,
प्रेम रखता था ।
इसीलिए गुरु की नींद न उचाट हो ,
इसीलिए खुद को विषैले कीट से कटवा लिया
परंतु आह तक न की ।
मेरे जांघों से बहते गरम रक्त से उनकी
नींद खुल गई और वोह सब राज जान गए।
मैं उनको फिर अपना भरोसा न दे सका
यह मेरा दोष था।
मैं सदा ठुकराया जाता रहा ,
सो यहां से भी ठुकराया गया।
मेरे एक दोष ने मेरे सारे गुणों को ढक दिया।
अमावस के चांद की तरह ।
मेरी वीरता ,मेरी दृणता,साहस ,लगन ,
नहीं देखी किसी ने ।
मेरी सज्जनता भी न देखी किसी ने ।
मेरी गुरु भक्ति और ईश्वर पर आस्था भी न देखी किसी
ने ।
हां !मेरी दानशीलता को सब जानते थे ,
इसीलिए समय समय पर लाभ उठाने आ गए ।
कोई अपने पुत्र के लिए मेरे कवच और कुंडल
मांग के ले गया।
और कोई अपने पुत्रों के लिए जीवन दान मांग
के ले गया ।
मैं सहृदय था ,दयालु था किसी को निराश न कर सका।
निसंदेह यह मेरा दोष था।
मेरा मूल्य समझा तो केवल दुर्योधन ने ,
उनसे मिला मुझे अत्यंत सम्मान और प्रेम।
जो मुझे अपने सम्पूर्ण जीवन में किसी ने न दिया ।
मैं उसका ऋणी था ,इसीलिए उसकी मित्रता ,
से बंधा रहा ।
लोगों ने इसे कुसंग का नाम देकर ,
इसे भी मेरा दोष गिनाया।
मैं सती नारी द्रोपदी का भी
अपमान नहीं करना चाहता था ।
मगर उसने भी तो किया था मेरा ,
भरी सभा में अपमान ।
मुझे सूत पुत्र कहकर ।
क्या मैं पीड़ित और संतप्त नहीं हुआ था।
मैं अपमान का घूंट पीकर रह गया ।
मगर नहीं किया कोई आक्षेप ।
क्योंकि मेरे निर्मल और स्वच्छ चरित्र
पर मात्र एक कलंक था ।
जिसे मैं सारी उम्र धो ना सका।
यही मेरा दोष था ।
मेरा कलंक धुला मेरी मृत्यु के पश्चात ।
जब माता कुंती ने स्वीकार किया ,
अपने पुत्रों के समक्ष ।
और मेरा पिंड दान करवाया।
मेरे पांडव भाइयों ने भी मुझे बड़े भाई के रूप
में स्वीकार किया ।मगर कब !
मृत्यु के बाद ही न !
जीतेजी तो मैं ऐसे सम्मान और प्यार के लिए ,
तरसता रहा ।
मुझे तरसना ही था क्योंकि मैं दोषी था,
मैने माता की कोमार्य अवस्था में जन्म लिया था ।
अपितु यह मेरे वश में नहीं था,
यह तो विधाता के वश में था ।
तो इसमें मेरा दोष क्या था?