सुनो ब्राह्मण / मलखान सिंह
सुनो ब्राह्मण!
हमारी दासता का सफर
तुम्हारे जन्म से शुरू होता है
और इसका अंत भी
तुम्हारे अंत के साथ होगा
(2)
सुनो ब्राह्मण!
हमारे पसीने से
बू आती है तुम्हें
फिर ऐसा करो
एक दिन अपनी जनानी को
हमारी जनानी के साथ
मैला कमाने भेजो
तुम!
मेरे साथ आओ
चमड़ा पकाएंगे
दोनों मिल बैठ कर
मेरे बेटे के साथ
अपने बेटे को भेजो
दिहाड़ी की खोज में
और अपनी बिटिया को भेजो
हमारी बिटिया के साथ
कटाई करने
मुखिया के खेत में
शाम को थक कर
पसर जाओ धरती पर
सूंघो खुद को
बेटे को
बेटी को
तभी जान पाओगे तुम
जीवन की गंध को
बलवती होती है जो
देह की गंध से
(3)
हम जानते हैं
हमारा सब कुछ
भौंडा लगता है तुम्हें
हमारी बगल में खड़ा होने पर
कद घटता है तुम्हारा
और बराबर खड़ा देख
भवें तन जाती हैं
(4)
सुनो भू-देव!
तुम्हारा कद
उसी दिन घट गया था
जिस दिन कि तुमने
न्याय के नाम पर
जीवन को चौखटों में कस
कसाईबाड़ा बना दिया था
और खुद को शीर्ष पर
स्थापित करने हेतु
ताले ठुकवा दिए थे
चौमंजिला जीने पे
वहीं बीच आंगन में
स्वर्ग के नरक के
ऊंच के नीच के
छूत के अछूत के
भूत के भभूत के
मंत्र के तंत्र के
बेपेंदी के ब्रह्म के
कुतिया, आत्मा, प्रारब्ध
और गुण-धर्म के
सियासी प्रपंच गढ़
रेवड़ बना दिया था
पूरे के पूरे देश को
(5)
तुम अकसर कहते हो कि
आत्मा कुआं है
जुड़ी है जो मूल सी
फिर निश्चय ही हमारी घृणा
चुभती होगी तुम्हें
पके हुए शूल सी
यदि नहीं-
तुम सुनो वशिष्ठ!
द्रोणाचार्य तुम भी सुनो
हम तुमसे घृणा करते हैं
तुम्हारे अतीत
तुम्हारी आस्थाओं पर थूकते हैं
(6)
मत भूलो कि अब
मेहनतकश कंधे
तुम्हारे बोझ ढोने को
तैयार नहीं हैं
बिल्कुल तैयार नहीं है
देखो!
बंद किले से बाहर
झांक कर तो देखो
बरफ पिघल रही है
बछड़े मार रहे हैं फुर्री
बैल धूप चबा रहे हैं
और एकलव्य
पुराने जंग लगे तीरों को
आग में तपा रहा है!
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~यह कविता बिहार सरकार के विश्वविद्यालयों के स्नातकोत्तर हिंदी के पाठ्यक्रम में इस बार लगी है।