सुजश कुमार शर्मा की कविताएँ
1. होने की अभिव्यक्ति विशिष्ट
शादी!
होने की अभिव्यक्ति विशिष्ट।
सौंदर्य की उपासना मे लीन
दो जोड़ी सर्वांगसम हथेलियाँ,
दो जोड़ी अधमुँदे नेत्रों के तेज का साक्षित्व।
बुदबुदाते युगल होंठ
मंदिर प्रांगण में कुछ सटे से कंधों का कंपन
हृदय में गूँजते अनगिन घंटियों का नाद
धूप-रोली की मिलती महक और रोशनी
जुड़े कदमों की थरथराहट
कि दो जिस्म सौंदर्य की उपासना में
दो न हो।
शादी!
समझ की बहुआयामी आत्मनिष्ठा
विषय की गहन समझ
किसी कला में गहराई
संवादों का चरम
मौन की सूक्ष्मता
आँसू-आँखों के मायने परस्पर
कहीं जा रहे प्रवाह के धार में, कण हम
होश है अपनी बेहोशी का मुझे
ये नशा, जीवन का, जरुरी है जीने के लिए।
शादी!
शील की पवित्रता एकनिष्ठ
सीता सी स्वयंवरा, शुभे, सुशीले
पलकों ने द्वार खोला ही नहीं
अधखुले, किसी और के लिए
भूल से भी पड़ी नहीं परछाईं किसी की,
प्रतीक्षा ने साँसों की गहराई बढ़ा दी
विश्वास है कि कोई समकक्ष है
तलाश उसकी ही,
मुझ सी ही मैं, मासूम मुसकान सी मेरी
आँखों की पवित्र चमक सी, कहीं तो होंगी
वो आँखें,
कि प्रेम में हूँ मैं
यही मेरी विशिष्टता।
शादी!
कलात्मक क्षमता की तटस्थता
शतरंज के मोहरों से खेलना
शब्दों की बाजीगरी जबरदस्त
चित्रों को जीवन बना देना
कि स्वर मे ढाल देना सब कुछ
दर्शन की भूमि में तर्क के अकाट्य तीर
ज्ञान का तेज दमके माथे में तिलक सा
ध्यान की अनुभूति गहन हो ओशनिक
हुनर हो जीने का जबरदस्त, कोई भी।
****