साक़ी इधर भी ला न ज़रा और ढाल कर
मैं लुट चुका हूँ वैसे भी अब तू न चाल कर
जैसा भी मेरा दिल है उसे रख सँभाल कर
साहिल पे अब है डूब रही या मेरे ख़ुदा
हाँ वो ही नाव जिसको था लाया निकाल कर
अब संगो ख़ार से ही रहे इश्क़ है अटी
रक्खे कोई क़दम तो ज़रा देख भाल कर
थोड़ी सी ही तो मै थी जिसे पी चुका हूँ अब
साक़ी इधर भी ला न ज़रा और ढाल कर
ग़ाफ़िल हैं जोड़ तोड़ रवायात इश्क़ की
मेरे नहीं तो ख़ुद के ही जी का ख़याल कर
-‘ग़ाफ़िल’