साहब
इन वर्दियों में कौन से धागे लगाते हैं ।
गर्मियां वे बस गरीबों पर दिखाते हैं ।
ठेलों से उठा लेते हैं वो अंगूर के दाने ।
जैसे बाप का हो माल वैसे हक जताते हैं ।
सरपट बैठ जाते हैं दरोगा पांव में जाकर ।
इन्हें सफेद धागे से बने कुर्ते नचाते हैं ।
गलतियां मुफ़लिस की थी हक मांगने आया ।
हर इतवार अब साहब उसे थाने बुलाते हैं ।
गांधी की टंगी तस्वीर थाने मुस्कुराती है ।
गालियाँ साहब की उनको गुदगुदाती है ।
✍️ धीरेन्द्र पांचाल