सावन ( दोहा छंद )
काँपी रह-रह घाटियाँ, आया विकट असाढ़ |
थर्राए गिरि देख कर , लाया ऐसी बाढ़ ||
सावन जहँ गाने लगा, रह-रह राग मल्हार |
अँगड़ाई लेती दिखीं , तहँ नदिया की धार ||
किश्ती भी उत्साह से, दिखी तरबतर खूब |
चिंता में है वक चतुर , कहीं न जाएं डूब ||
कुदरत ने तन पर मले, सावन के जो रंग |
हर्षित हरियायी दिखी , धरा नवांकुर संग ||
झरनों की किलकारियां, खींच रहीं हैं ध्यान |
गाता है सावन जहाँ , लेकर लम्बी तान ||
मेघ गर्जना से कहीं , दादूर करते शोर |
कहीं उतरकर वृक्ष से, नाच रहा है मोर ||
मुख कलियों का चूमती, बारिश की जल बूँद |
तीक्ष्ण शूल को देखकर , रही नयन अब मूँद ||
~ अशोक कुमार