सारे तीरथ कर आया, पर मन को फेर न पाया
सारे तीरथ कर आया, पर मन को फेर न पाया
दूर देश हज कर आया, ईमान न खुद पर लाया
कितना बांध हूं इस मन को, यह कहां बंध पाता है
मौका पाते ही पंच द्वार से, फुर्र से यह उड़ जाता है
पांच वक्त की पड़ी नमाज, नियत बांध न पाया
उड़ती फिरती है इधर उधर, अब तक पकड़ न पाया
घर में बैठी रही अकेली, पास कभी न आया
बार बार चेताया फिर भी, मुझे समझ न पाया
पड़ी रही अतृप्त उपेक्षित, ध्यान न मेरा आया
जज्बातों से खेल रहा था, कितना मुझे सताया
आत्मा हूं मैं जान हूं तेरी, समझ न मुझे पराया
अपने मन की करते करते, क्षीण हो रही काया
अपने मन मूरख के पीछे, संसार में कब तक दौड़ेगा
बचा हुआ समय जीवन का, क्या व्यर्थ यूं ही खो देगा
वक्त है अब भी बांध ले मन को, समय निकल न जाए
मानस तन का लाभ लिए विन, तन ये छूट न जाए
सुरेश कुमार चतुर्वेदी