सामन्जस्य
डा. अरुण कुमार शास्त्री – एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त
* सामन्जस्य *
शब्दों की कोई जात
नहीं कोई पात नहीं
कोई औकात नहीं
फिर भी इन शब्दों के
द्वारा दुनिया भर की
जात पात को चोटिल
करना घायल करना जारी है
इन शब्दों के माध्यम से
जाने क्युं अनजाने में
कभी कभी तो भड़काने को
ऐसे ऐसे कड़वे कड़वे
विष उगले जाते हैं
जिस विष के वितरण से
न जाने कितने मासूम हृदय
असमय ही काल गाल में जाते हैं
शब्दों से ही फिर उनकों सद्भावों
की मरहम पट्टी की जाती है
जो चले गए जो छल्रे गए
क्या उन घावों की कभी
आपूर्ति हो पाती है
सोच बदल लो शब्द बदल लो
मानव हैं अपने जैसे है
हैं भाई नही फिर भी भाई जैसे
इसीलिए ये कटुता के भाव
बदल लो इसी धरा पर रेहते हैं
इसी धरा पर रहना है
फिर बीज घृणा के उनके लिए
किस कारण से बोना है
फिर बीज घृणा के उनके
लिए किस कारण से बोना है