सामंजस्य
यदि नदियां स्थिर, हवाये मौन
और समुद्र शांत हो जाए
तब साम्य की स्थिति आ जाती है
जीवन रुक जाता है
क्रियाएं प्रतिक्रियाएं सब कुछ गौण हो जाता है
सुख और दुख दोनो का अपना महत्व है
खट्टा मीठा कडुवा अनुभव ये जगत के सत्य है
इन्हे अपनी प्रक्रिया करने दो
यहां सुधार की क्या आवश्यक्ता है ?
ये तो प्रकृति का आशीष जीवन पर्यंत है
जब जब मनुष्य ने इसमें दखल दिया
परिणाम भयंकर भोगा है
सृष्टि से संताप और युद्ध
वाह, मनुष्य ये कौनसा योगा है ?
तुम अपनी स्वंत्रता और उचछंखुलता से
अपना जीवन जीना चाहते हो
तो नदी को भी हसने दो,
नदी को भी बहने दो
नदी को मत काटो , नदी को मत बाटो
नदी के अंग काटोगे तो नदी रोयेगी
आओ चलें नदी को सोचे , आओ समुद्र को टटोले
आओ हवा को स्वच्छ करे
प्रकृति को एक सुरक्षा कवच
अपनी बदली सोच से अर्पित कर इसे संजो ले ।
(दो पंक्तियां नवगीत के सृजक श्री वीरेन्द्र मिश्र के गीत से उद्धरित है –
( नदी के अंग काटेंगे तो नदी रोयेगी
नदी को हसने दो नदी को बहनें दो)
रचयिता
शेखर देशमुख
J-1104, अंतरिक्ष गोल्फ व्यू -2
सेक्टर 78, नोएडा (उ प्र)