साठ पार की स्त्रियाँ
साठ पार की स्त्रियाँ
उत्कट जिजीविषा से भरी
निर्जीव में चेतना भरती सी प्रतीत होती हैं,
घर में नमक सी होती हैं
सबके सपनों में घुल जाती हैं,
जिंदा रखती हैं पौराणिक कथाएं
लोक गीत, धर्म, संस्कृति और संस्कार,
इनके हाथ की बनी रसोई से
तर रहते हैं परिवार…..
साठ पार की स्त्रियाँ
पद्मिनी सी आत्मसम्मान से जीती हैं,
किन्तु ये ग़म में अपनी
आत्मा का जौहर नहीं करतीं,
यौवन की स्मृति में
प्रेम का ताजमहल बुनती हैं,
संभाल कर रखे गए खतों को
एक-एक कर पुनः पढ़ती हैं,
अपने जीवन की एक
नई परिभाषा गढ़ती हैं…..
साठ पार की स्त्रियाँ
अपने अस्तित्व का वर्चस्व
स्वयं चुनती हैं,
इनका खुद का अपना आकाश होता है,
घर के हर कोने में
इनकी पहचान छुपी होती है,
ये आँच पर पकी हुई
और सांचे में ढली हुई सी होती हैं,
इन्हें रोकना आता है आँसुओं को
और परखना आता है
संयम और संतोष को…..
साठ पार की स्त्रियाँ,
ब्रह्मांड सा विस्तृत इनका स्वरूप होता है,
वट वृक्ष सी इनकी जड़े होती हैं,
उनकी छांव तले
परिवार की नई शाखाएँ पनपती हैं,
ये वसुंधरा सी होती हैं
कहीं खुरदुरी, कहीं कोमल, कहीं सपाट
किन्तु इनकी बनाई गृहस्थी में
माटी की सी सुगंध भरी होती है,
ये समन्दर की लहरों सी
उठती-गिरती रहती हैं
पर अपनों का किनारा कभी नहीं छोड़ती हैं
अपनी नमी से सदा उनको सींचती रहती हैं…..
साठ पार की स्त्रियाँ
अपनी छाती पर वर्षों का बोझ संजोए
आकाश से भी शक्तिशाली होती हैं,
पके बाल और झुर्रियों में
जीवन के अनुभव और अनुभूति का
अद्भुत संगम लिए जीती हैं,
इनके घुटने भले ही कमजोर हों
लेकिन इनका अंतस दृढ़ होता है,
धीरे-धीरे तट पर खिसकती उम्र में भी
ये घर की रौनक होती हैं…..
साठ पार की स्त्रियाँ
अपने समय की ऐसी अंतिम पीढ़ी हैं
जो बीते समय की पहचान हैं
औ’ भावी पीढ़ी की प्रेरणा हैं,
ये आधी दिन और आधी यामिनी सी होती हैं
ये जितनी ऊपर से घिसी हुई दिखती हैं
उससे अधिक ये अंदर से निखरी हुई होती हैं,
ये जीवन को जीती हैं
कुछ अलग होती हैं
ये साठ पार की स्त्रियाँ।
हाँ, ये साठ पार की स्त्रियाँ।।
रचयिता—
डॉ नीरजा मेहता ‘कमलिनी’