सागर ने पूँछा
सागर ने पूँछा-
सागर ने पूंछा सरिता से, मुझे बताओ,
सब मुझमें सर्वस्व समाहित है समझाओ.
यह अमूल्य उपहार तुम्हीं से तो पाये हैं,
लौह, रजत, यह वृक्ष हमें भी मन भाये हैं,
क्या कारण है, वेत नहीं तुमसे पा पाया,
छोटा है पर, मेरा मन उस पर ललचाया l
सरिता –
कोशिश की मेनें प्रवाह से उसे बहा लूं,
ऋण जो भी है शेष, उसे भी यहाँ चुका लूं,
पर वह तो झुक के ऐसे शरणागत होती,
सदा समर्पण, अंहकार को सचमुच खोती,
तुम्हीं बताओ, फिर उसको कैसे छू पाऊं?
शरण आपके कैसे मैं उसको ले आऊँ l
चरणों की रज ले कर मैं ही शीश झुकाती,
सच पूँछो तो उसमें ही सच्चा सुख पाती l