सलवटें
अंतर्मन में
सोच की सीढ़ी चढ़
सोपान की देहरी
एकांत की खिड़की से झांक
जब भी मिला ख़ुद से
परिपक्व से लम्हे
वक़्त की खूंटियों पर टंगे
बरबस कह जाते हैं
तुम कोई और हर बार
हुए जाते हो
क्यों तुम पीठ पर
ओढ़े हुए एक सड़क
राहगीरों के लिए बनाते हो ?
बेख़बर लम्हे शायद
जानते नहीं
जैसे धुन्ध से भरी झील
जता नहीं पाती
कितने कंकर झेले हैं
कुछ दायरों के लिए
और तहों में सिमटाए बैठी है
शोर भरी सलवटें ।