“समाज के शत्रु की फितरत”
“समाज के शत्रु की फितरत”
दो दिन की सत्ता लेकर वे,
चमड़े का सिक्का चला रहे।
नीले गीदड़ की भाँति वे,
सबको अपना रंग दिखा रहे ।
देखो इनकी फितरत,
कैसे बुद्धू बना रहे।।
चहके चहके फिरते दिन भर ,
खुश होते अपनी बुद्धि पर ।
गद्दी अपनी न वो बचा सकें,
गर आहों का जलजला आ जाये।
जीने की हसरत लेकर भी,
शैय्या मृत्यु की ले पायें ।
जिनके दिल में आहत होगी,
वे लाठी भाले नहीं लायेंगे।
केवल मन की भड़ास बुझाने,
अपशब्द अवश्य कह जायेंगे ।
देखो ज़रा इन लोगों को,
अपनी फितरत ऐसे ही निभाएंगे ।।
वो चिकने अरबी के पत्ते,
जहाँ पानी की न बूंद रूके।
उनकी सेहत पर फर्क नहीं,
वो शत्रु सबकी जेबों के।
वे सत्य रूप अपराधी हैं,
पर मानने को तैयार नहीं ।
वे एक निर्लज्ज जीवन धारी हैं,
तुम सब के लिए अवतार नहीं ।
यही तो उनकी फितरत है ,
इसको तुम भूलो नहीं।।
मुझको ऐसा आभास हुआ,
तुम सबको मार गई जड़ता ।
तुमको अधिकार चुकाने हैं,
मुझको कोई फर्क नहीं पड़ता ।।
तुम गफलत की निद्रा में हो,
अधिकार छिने परवाह ही नहीं।
यहाँ भी कुछ ऐसा ही तो है,
जैसे गवाह खड़ा मुद्दई नहीं । ।
तुम ऐसी बेहोशी में हो,
जिस पर पानी का असर नहीं।
जो फटी गुदड़िया में प्रसन्न,
मिलने की उनको टसर नहीं । ।
जिनके कर्ज़ों में बाल बिंधे,
उन परिवारों की बसर नहीं ।
इस पूंजीवाद के शासन में,
बिन काल मृत्यु में कसर नहीं । ।
यह तुम्हारी फितरत है ,
जो बदलने को तैयार नहीं।।
“दयानंद”