समर्पित भाव
हुआ समर्पित तुमको ऐसे,
जैसे प्रभु की शरण मिली।
तुम फिर भी यह कह देती हो,
तुमने मुझको फसा दिया।।
मेरे दिल से पूछो प्रियतमे,
तुमको कितना स्नेह किया हैं।
तेरा दुख तुझे पहले,
मुझसे आकर मिलता हैं।।
मुझसे मिलकर कहता हैं,
क्या मैं तुमसे मिलाऊ?
मेरा प्रेम देखकर वह भी,
फिर यूँ ही मुड़कर जाता हैं।।
कहता हैं फिर मुझसे वो,
तुम इतना प्रेम क्यों करते हो?
तेरा प्रेम देखकर मैं भी,
करने से कुछ डरता हूँ।।
तुम फिर भी यह कह देती हो,
तुमने मुझको फसा दिया।
मैं तो तेरा दर्श दीवाना,
तुमने मुझको बना दिया।।
यहाँ तो तुमको मैं मिल पाया,
वहाँ ना तुमको मैं मिल पाता।
मेरा जीवन फिर यूँ ही बस,
दुखी दुखी ही रह जाता।।
बोलो मुझको दुखी देखकर,
खुशी अनुभूति तुम कर पाती।
मेरा स्नेह बिन पाए तुम,
सुखी कहीं भी रह पाती।।
मैं तो तुझमे खुशी ढूंढता,
बस स्वार्थ मेरा इतना हैं।
तेरी खुशी का माध्यम बनना,
बस मेरा जीवन इतना हैं।।
तुम फिर भी यह कह देती हो,
तुमने मुझको फसा दिया…
ललकार भारद्वाज