समझाए काल
रवि की प्रचंडता से
तड़प उठे चराचर सभी।
छाया भी छाया तके
तरु तले थकी -थकी।
कृश वदना सरिता हुई
रहा ना उज्ज्वल नीर।
कहाॅं समीर में सिहरन
लूऍं बढ़ाती पीर।
पानी से बुझती प्यास नहीं
निकला तन का तेल।
पसीने -पसीने हो गए
कैसा कुदरत का खेल?
जहाॅं कल तक हरियाली
वहाॅं सूखाऔर अकाल।
खिलवाड़ प्रकृति से ना करो
समझाए बदला काल।
समझाए बदला काल
अपनाएं परंपरा पुरातन।
हर शुभ अवसर पर रौंपे
बरगद, नीम और पीपल।
यह वृक्ष त्रयी प्रकृति को
फिर से आबाद करेगी।
प्रदूषण से दिला निजात
नव सृष्टि से संवाद करेगी।
प्रतिभा आर्य
चेतन एनक्लेव
अलवर ( राजस्थान)