सब बेमानी है
तुम ऐसा करते तो क्या था
तुम वैसा करते तो वाह था
सब कह कर ही कराना था
फिर तो विश्वास बहाना था ,
बिना कहे जो तुम समझते
जब दर्द से उठती
तो तुम हाथ ना पकड़ते ?
रात के सन्नाटे में आँँसुओं की धार
तुम्हें अपनी हथेली पर महसूस होती
तुम्हारी ही करनी पर यूँ ज़ार – ज़ार ना रोती ,
समाज के संभ्रांत लोगों के सामने
विवाह की वेदी पर जो कसमें खायीं थी
उसको सिर्फ एक को निभाना है
ये किसी ने नही बताई थीं ,
हमारे परिष्कृत समाज में
एक पहिये की गाड़ी को
पुष्पक विमान कहा जाता है
बोझ कंधे पर किसी और के होता है
खुद को सरे महफिल पहलवान बताया जाता है,
वो कसमें वो वादे सब बेमानी हैं
विवाह के पहले सब रूमानी है ,
एक दूसरे को समझने के दावे
यूँ झूठे ना पड़ते
हम समझते हैं एक दूसरे को
ये झूठ ना कहते ,
सारे मसले पल में हल हो जाते
तुम तुम ना कहते
मैं मैं ना करते
सब बातों को परे हटा कर
बस हम और हम सिर्फ हम कहते ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 25/11/2019 )