सबेरे का अंत
सबेरे का अंत
(मेरी बात:मुश्किल है अब जीना)
हर रोज
एक नया सबेरा आता तो है
पर मेरे लिए नही,
दुनिया के लिए,
मुझे तो जिंदगी
अंधेरा ही लगता है,
दिन सबके लिए शुरू होता है,
लेकिन मेरी जिंदगी
अब शुरू ही नही होती,
हां रोज मैं सुबह उठ तो जाता हूँ,
लेकिन शायद जाग नही पाता,
मेरी आँखें तो खुली रहती है,
लेकिन मैं कुछ देख नही पाता,
ये शायद मेरे,
कुछ न कर पाने का इनाम है,
जो अपनो ने दिया है,
क्योकि अभी कुछ कर नही रहा,
हां मैं इतना भी नकारा नही,
की कुछ करने के लायक ही नही,
भले ही किसी के लिए न सही,
अपने लिए तो नायक ही हूँ,
हां मुझे किसी से
शिकायत तो नही है,
पर अपनी जिंदगी से
मोहब्बत भी नही रही,
मेरी हालत क्या है
कोई नही जानता,
बस सबको अपनी ही पड़ी है,
अब तो लगने लगा है
इस दुनिया में,सबके लिए
मैं बोझ बन गया हूँ,
बीते कल की याद में रो पड़ता हूँ,
और आने वाले कल के बारे में,
सोचकर डर लगता है,
अब जो भी हो रहा है
अच्छा तो नही,
मुझे खुशियों की
आदत तो नही है,
फिर भी हमेशा
खुश दिखने की,
कोशिश तो करता हूँ,
क्योकि सबको दिखावा पसन्द है,
कभी कभी सपने में खो जाता हूं,
तो कभी हँसते हुए रो पड़ता हूँ,
मुझे कुछ ज्यादा नही,
बस थोड़ा सा प्यार चाहिये,
कोई प्यार से बात करले,
इतना ही बहुत है मेरे लिए,
हां नालायक ही सही मैं,
पर लायक बनना तो चाहता हूँ,
मुझे अब जिंदगी से प्यार नही,
मैं अब सबसे दूर होना चाहता हूँ,
मुझे नही पता,
मेरे जाने के बाद
लोग क्या सोचेंगे,
पर इतना तो पता है,
मेरे रहते तक हमेशा,
लोग मुझे कोशते ही रहेंगे,
और शायद मेरे जाने के बाद
मेरी लिखी बातों को,
कभी पढ़ेंगे तो,
मन मे कुछ विचार आएगा
उसे पढ़कर,
शायद कुछ अच्छा सोच लें,
हां ! था एक नालायक,
जो कुछ कहता नही था,
पर कुछ करना चाहता था,
लिखता था,
पर कोई समझ नहीं सका।।
– विनय कुमार करुणे