सफ़ेदे का पत्ता
सफेदे का एक पत्ता
आ गिरा
सो रहा था मैं जहाँ
ऊपर मेरे
तब खो गया मैं
इस जगत से
उस अलौकिक जगत में
जहाँ अक्सर खोते है
कोई साधक।
कभी उद्भूत यहाँ पेड़ हुआ था
फिर कितने ही सालों तक
इसने निर्माण कई पत्र किये
फिर एक दिन आया होगा
यह पल्लव
खुश था तभी तो
झूम रहा था
गा रहा हो
जैसे गीत
कभी पंछी
कभी ओस
बनाये इसने
बहुत से मीत
पर जीवन की नदी
निरन्तर बहती रहती है
सागर से उठ
पुनः उसी में
यह तो मिलती रहती है
जाने क्या आया
उसको दुःख
गया वो पत्ता
पूरा-पूरा सूख
जुड़ा हुआ था
वो अपने परिवार
परिवेश और मित्रों से
पर छूट गए
सब के सब
पीछे ही
और गया वो टूट
जाते – जाते सीखा गया ये
बता गया ये
सो रहा तू बेखबर है
भले कर रहा कुछ
काम मगर है
तू भी इक दिन सूखेगा
परिवार भी तुझसे झूटेगा
तू आया है
जिस भी जगह से
आखिर वहीं पे जायेगा
जिस पेड़ से निकला है तू
न वो भी धरा रह पाएगा।
-राही