*सपनों का बादल*
अपने कोष में समेटे है धरती का अमृत,
ले लेता है रूप कभी अपेक्षा-अनुरूप|
वो रखता है क्षमता सूर्य को ढापने की
फैलाता है माँ-सम आँचल तेज धूप में|
मुलायम, सफ़ेद है कभी कोमल रूई-सा,
सख्त लगता है कभी और स्याह कोयले-सा|
वो जिसे देख नाच उठते जंगल के मोर,
वो जिसे देख खिल उट्ठे मन का भी मोर|
वही जो दिखता है क्षितिज के छोर तक,
वो जो बदलता रहता है अपना स्वरूप |
कभी नव वधु-सा चंचल, तेजोमय-उदीप्त,
कभी उदास, मुरझाई प्रेमिका विरह-सिक्त|
वो चंचलता में नहीं कम किसी हिरनी से,
जिसकी चपलता नहीं कम किसी तरुणी से|
कभी हाथ में आए तो कभी फिसल जाए,
कभी क़दमों में जन्नत-सा सौन्दर्य लाए|
निराकार, कभी साकार वो सपनों का बादल,
अपने कोष में समेटे है पृथ्वी का निर्मल जल|