सपने
सपने
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सपने तो मेरे भी बहुत थे,
रातभर उड़ान भरते,
भोर होने तक टूट जाते,
मिट्टी के घरौंदे की तरह।
केवल मन ललचाने को,
याद बन कर रह जाते थे।
मैं भी जिद्द कर बैठा एक दिन,
गाँठ बाँध कर बैठ गया,
सपने को टूटने नहीं दूँगा।
मगर सपनों ने भी अपना चक्र बदल दिया,
रात की बजाय आने लगे दिवास्वप्न।
क्योंकि पसीना बहने लगा था जी भर कर,
अंततः मुझे पहुँचा दिया मंजिल पर,
जिंदगी बदल गई,
सपने अपने हो गए।
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अशोक कुमार ढोरिया
मुबारिकपुर(झज्जर)
हरियाणा