सन्नाटे गांवों में पसारे (नवगीत)
नवगीत _7
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सन्नाटे
गाँवों में पसरे
कोलाहल है नदी किनारे
वक़्त काटता
दर्जी बनकर
जीवन को नित लेकर कैंची
और बुढ़ापा
खोल रहा है
निजकर्मो की रोज़ अटैची
होमवर्क को
लाद लड़कपन
तितली खुशियां पकड़ रहा है
दीवारों में
लगी खूटियां
खेल रहीं लेकर गुब्बारे ।
बूढ़ी अम्मा
किस्मत-उपले
थाप रही घर के पिछवारे
और भोर बन
उनका नाती
दौड़ रहा है बाह पसारे
बिन बादल के
बदली बदली
गरज़ रही है रोज जेठानी
धूप झाँकती
ज्यों देवरानी
रुक डेहरी पर घूँघट काढ़े ।
आशाओं सी
उम्र बढ़ी पर
घटा नेह का उथला सागर
लोलुपता की
प्यास लिए नित
जर्जर रिस्ते भरते गागर
सच्चाई
आधार ढूढती
झूठ बढ़ा जाता बन बहरा
जीवन के इस
उठा पटक में
सुबक रहा सच झूठ निहारे ।
रकमिश सुल्तानपुरी