सत्य गाँव?-असत्य गाँव ?
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गाँव तुम्हारे प्रांगण में
देखा गहराते तेरा छांव.
ओठों पर स्मित हंसी देखी
तन पर चीथड़े का लटका पांव.
दर्द नशा सा छाया था
नशा दर्द का साया था.
पीड़ा से आनंद चुराते
बरगद ढूंढ़ रहा था छाँव.
सूरज को तुम रोप रहे थे
चंदा काट रहा था पांव.
हाथों में हल वैसाखी सा
टिके कहाँ?दलदल हर ठांव.
मोती जैसा गेहूं दाना
सोना सा चमकीला था.
श्वेद बहाकर तुमने सींचा
तुम ही चुरा रहे थे आंख.
जमींदार ने पगड़ी बांधा.
लंगड़ उठा तेरा सीधा पांव.
दोपहरी के तप्त सूर्य को
देह से ढंक तूने किया छाँव.
पोथी सा बही उसने निकाला
तेरा जनम-कुण्डली उघारा .
तेरे बाप के कर्ज का पाप
‘गुरु’ के घर बन बैठा सांप.
गाँव तुम्हारे घर,आंगन में
क्रन्दन का क्यों ठहरा गाँव.
क्यों नहीं हाथों में भरकर तू
उठा रहा अंगद का पांव.
तुमने अपनी ही सीता को
क्यों ‘अशोक’ में कैद किया.
अरे,तुम्हारे मन में मृत है
तेरे हाथों का हर दांव.
तेरे अधर तृषित हैं बन्धु
बाँट रहा तू मधु का गाँव.
जब भी चूमा,चूमा विष-घट
हाथों में रख मधु का गाँव.
कब तक तुम साकी अबोध बन
मधु का धार लुटाओगे.
कब तक तेरे घर आंगन में
रोयेगा तेरा ही गाँव.
अंधकार है तेरा दिन सब
क्योंकि अँधा तेरा दांव.
बहुत पुराना जडवत तेरा
पकड़ बैठना एक ही दांव.
चलने-फिरने से कुछ होगा
जोड़ का जकडन कुछ कम होगा.
चलो फिरो कुछ बाहर न तो
अंतर्मन के आंगन गाँव.
हर तरु तेरा बाग बगीचा
अंक सा फैला ठहरा छांव.
छलकाता है सुख का अमृत
आओ ठहरो तुम भी गाँव.
कोयल छककर पथिक,बटोही
होते पीकर मस्त यहाँ.
तेरे लिए पट-पाँवड़े बिछाये
आओ तुम सुस्ताओ गाँव.
सुरभित पवन मंद बहता है
सुखद उष्णता का घर गाँव.
पुष्प-मंजरिका इठलाती सी
भ्रमर फेंकता अपना दांव.
पत्तों में शर्माती,छिपती
सुंदर तन नव-परिणीता सी
आओ आज नजर भर देखो
अपना सौन्दर्य निहारो गाँव.
नहीं रुकी है गति हवा की
नहीं समय भी रुकता गाँव.
पर,तुम इससे तेज भागते
चलो समझ से प्यारे गाँव.
ठहरो ,सोचो रुके कभी न.
फिर भी क्यों तुम पीछे हो.
पैरों में गति बांधे हो तुम
चलते फिर भी ‘बांधे’ पांव.
तुमको न हो आवश्यकता
जग को तेरा तो है गाँव.
अगर रुके तुम क्षण भर भी न
पागल होगा हर ही छांव.
तूने रोपा,पाला,पोसा
श्वेद से व रस-सिक्त किया.
उसका तो कर्तव्य भी होगा
धर्म निभाने दो तो गाँव.
इससे कुछ संकेत मिलेगा
या संदेशा तुमको गाँव.
चलते-चलते तुम नहीं थकते
पर,थक जाता होगा पांव.
है ही श्रम संकल्प तुम्हारा
इसे नहीं इंकार कर रहा
किन्तु,कहीं विश्राम लिखा है
आँख उठाकर देखो गाँव.
एक समय राजा होता था
उसकी संगिनी रानी, गाँव.
स्नेह,प्रेम के पर्ण होते थे
बरसाते थे प्राण के छांव.
एक समय नाचा करता था
रजा रानी गाँव के साथ.
आज नहीं वह राजा, रानी
आज नहीं वह आश्वस्त गाँव.
अब तो तुम ही राजा रानी
राजमहल के वासी, गाँव.
प्रण कर लो तो तेरा होगा
इतना जान लो,सुन लो गाँव.
अधरों पर मुस्कान भरो
मुस्कान बाँट तब पाओगे.
निश्चल हास न दे पाओगे
मन में हो यदि कोई दांव.
बाग-बगीचा तो होता है
काट-छाँट कर सुंदर गाँव.
काटो-छांटो,करो व्यवस्था
अपना हाथ निकालो गाँव.
सुन्दरता जागीर नहीं है
शहरों की तकदीर नहीं है.
माली का संकल्प धरो मन
आत्मसात् व तन में गाँव.
सृष्टि का सौन्दर्य तुम्हीं हो
तुमसे सृष्टि सुंदर गाँव.
तुम्हें देखकर देख रहे हैं
नियति,नटी को हम सब गाँव.
अविरल कर्मशील रहते हो
जग को मधु जुटाते गाँव.
हाथों में फावड़े उठाकर
ललित यह विश्व बनाते गाँव.
मधुमय,मोहक,मनहर,मादक
विश्व यह, तेरे होने से.
अथवा लालायित होते सब
पाने को एक सुदृढ़ ठांव.
चलने से हिचकिचा रहे हो
पथ पत्थर में खोद के गाँव.
हाय! विडम्बना कैसी है यह,
जिसका पथ,वह ठिठका पांव.
दूर तभीतक जबतक पग थिर
चले-चले तो समझो पास .
तुझसे हिम्मत पाते हैं सब
सोच रहे क्या चुपचुप गाँव.
मिटनेवाला सब कुछ जग में
नगर,नागरिक,शासन,शासक.
सदा टिकाऊ हास,रुदन तव
शाश्वत तेरा तन-मन गाँव.
साहस,हिम्मत ने सीखा है
साहस,हिम्मत तुमसे गाँव.
यह है तेरा अप्रतिम सौन्दर्य
अरे, उठाओ अपना पांव.
चलने में कितना बीतेगा!
बीत न जाये ही चलने में.
ऐसी बातें सोच के मन में
तोड़ न लेना मनबल गाँव.
सारा जग आयेगा पथ पर
सबके अगुआ होगे गाँव,
उत्सुकता चलते रहने की
बनी रहे तो जानो गाँव.
चलते रहने की उत्कंठा
जब तेरी मंजिल बन जाये.
अभिलाषा हो सबसे उपर
चलने की, वह जीता गाँव.
साकी बन उत्कंठा बांटो
लोग कहेंगे ‘चियर्स’ गाँव.
उत्कंठा कर्तव्य-बोध का
है तेरे रक्त में बहता गाँव.
कहीं?प्रतीक्षा तो नहीं करते
साथी की या साकी की.
जब तुम चले,चले आयेंगें
साकी,साथी खुद ही गाँव.
द्वेष,घृणा,शोषण,पीड़ा से
व्यथित विश्व का तन,मन गाँव.
स्नेह तुम्हीं ने रोपा जग में
वात्सल्य और उगाया गाँव.
अंतहीन आकाश की भांति
अंतर्मन में तेरे प्यार.
तूने करुणा की निर्झरणी
है नि:स्वार्थ बहाया गाँव.
आजादी का मोल जानता-
आजादी का अर्थ जानता-
जिसने तेरा माटी चूमा,
जिसने तिलक लगाया गाँव.
रंग,बिरंगे खग को बंदी
शहर बना लेता है गाँव.
पिंजड़ों में भर सोचा करते
सुखी कर दिया उसको गाँव.
तूने नभ अपने तन पर रख
उड़ने को आकाश दिया.
उसके सुख तुमने पहचाने
दिया,मुक्त विचरण हित गाँव.
कितने शव अब और उठाकर
फेंकोगे धारे में गाँव.
कितने हसरत कुचल-कुचल कर
शव ही और, करोगे गाँव.
कितने शव के राख उड़ाकर
अपने को शव कर दोगे तुम.
कितने अरमानों का शैशव-गला
घोंट दोगे तुम गाँव.
रक्त तपाकर श्वेद बनाता
शीत,ताप,वर्षा में गाँव.
अन्न अनेक उपजाता भी है
पर,प्रसाद सा पाता गाँव.
झुठला,फुसला ले लेता है
मन का कितना भोला है!
अब चतुराई सीख बन्धु रे,
कब तक क्षुधित रहेगा गाँव.
ओत-प्रोत मृदु भावों से है
अंतर्मन तेरा ही गाँव.
विनय,नम्रता और सरलता
मूर्त रूप तुम इसके गाँव.
सुबह तुम्हारा निर्मल,शीतल
भरा हुआ संगीत से गाँव.
चिड़ियों के कलरव गायन से
सरिता के कल-कल से गाँव.
धीरे-धीरे उठता सूरज
गौरव का सौन्दर्य बिखेरे,
सौन्दर्य का आश्चर्य बिखेरे.
ठहर-ठहर जाता है गाँव.
स्वर्ग यहीं ही करता होगा
स्वर्गिक सुख का अनुभव गाँव.
मचल देवगण जाते होंगे
यहाँ जन्म लेने को गाँव.
वीणा झंकृत होती सी है
जलतरंग भी बजता गाँव.
किसी यशोदा का जब कान्हा
आंचल पकड़ ठुमकता गाँव.
कलकल करती बहती सरिता
तेरे ही पिछवाड़े गाँव.
झूठा हो-हो जाता आकर
यहाँ राज,रजवाड़े गाँव.
कोयल कू,कू करती थकती,
कभी न तेरे प्रांगण में.
शिशु सा निश्छल तेरा मन है
यहाँ जन्म हम फिर लें गाँव.
रुनझुन-रुनझुन पायल बजता
तेरे ही घर-द्वारे गाँव.
ठुमक ठुमक चले रामचन्द्र.
तेरे ही अंगना में गाँव.
छलछल छलका करता माखन
चुप-चुप कान्हा उसे चुराता.
और शिकायत लेकर आते
गाँव-गाँव की सखियाँ गाँव.
पुष्प सुसज्जित केश घने पर
डलिया शोभित होता गाँव.
मेंहदी रचित मृदुल हाथों में
कचिया शोभित होता गाँव.
श्रम पर क्यों सौन्दर्य मरे ना
भक्तों पर जैसे भगवान.
पैर महावर से रंजित है
जल का घड़ा उठाये पांव.
झुलसे, जले खाक हो जाये
धर्म न छोड़े ऐसा गाँव.
चलते रहते धर्म-राह पर
रहे सलामत या टूटे पांव.
कालयवन जाकर सोता हो
अंधकार के गुफा-गर्भ में.
दौड़ लगाकर चला किया है
कृष्ण का तन-मन तेरा गाँव.
आतुरता तुम नहीं दिखलाते
पाने की कुछ चाह न गाँव.
क्यों हताश है होना तुमको
खोना तो कुछ भी नहीं गाँव.
बहुत और बिलकुल निर्लिप्त ही
जीना तुमने सीखा है.
देना ही देना तुमको है .
देकर सुख पाते हो गाँव.
सुरभित पवन प्रवाहित होता
तेरे ही प्रांगण में गाँव.
स्वर्गिक सुख,आनंद,प्रसन्नता,
ईश्वर तेरे घर-घर गाँव.
सेवा में सर्वस्व निछावर
करने को तत्पर रहता है.
प्रेम वचन ही बोले सर्वदा
सदा स्वार्थ से उपर गाँव.
सावन की घनघोर घटा से
तेरा अद्भुद नाता गाँव.
तू उछले,मन बांसों उछले
झुक-झुक जब यह फैले गाँव.
शीतल होता ताप से झुलसा
तन बेचारा,मन बेचारा
वारि विन्दु जब-जब है झरता
और वचन मृदु तेरा हे,गाँव.
होने को जब हुई सभ्यता सभ्य
तुम्हीं ने अपना आंचल फैलाया.
पकड़ अंगुलियाँ शिशु सा तुमने
चलना इसे सिखाया गाँव.
तन कठोर,मन मृदुल, सरल है
नारिकेल का फल ज्यों गाँव.
देह ताप से चाहे झुलसा
श्रम का गौरव है पर,गाँव.
कर कोमल में धारण करके
हल,कुदाल; बलराम बने तुम.
लोक-गीत ओठों पर धरके
कृष्ण बने आते हो गाँव.
वनस्पति,वन,जीव,जन्तु में
हिले-मिले रहते हो गाँव.
जीवन के सुर,तान,गीत सब
यहीं कहीं मिलता है गाँव.
सूर्य,चन्द्र,नभ,तारे सारे
नियति,नियंता तेरे साथी.
‘वह’ वह राजा बिना मुकुट के
वह साम्राज्य तुम्हारा गाँव.
कहाँ,कौन सभ्यता है जग में
तरु की पूजा करता गाँव!
यह तो तेरा केवल तेरा
बड़ा बड़प्पन हे, सुंदर-गाँव.
किसलय,सुमन व मीठे फल सा
अहो,तुम्हारा है अंत:स्थल.
तरु से निकले पल्लव-दल सा
कोमल,स्निग्ध,मोहक तुम गाँव.
हाथों में खेला करता है
सामंतों के सारा गाँव.
विवश और लाचार, बेचारा
ऋण से जकड़ लेता हर पांव.
बड़ा मसीहा बना हुआ वह,
खुद के लिए मसीहा पर,
गाँव को वह जागीर समझता
जब हो मन काट ले पांव.
बना हुआ है विषमय जीवन
पर,देता अमृतघट गाँव.
विश्व! तुम्हें अमृत का सुख सब
देगा,देगा,देगा गाँव.
किंकर्तव्यविमूढ़ बनो जब, ऐ दुनिया!
राह न दिशा न कोई हो .
तब तुम इसको पास बुलाना
गले लगा लेगा यह गाँव.
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अरुण कुमार प्रसाद