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24 Mar 2024 · 1 min read

सत्य का अन्वेषक

वह तो सत्य का अन्वेषक है,
पथरीली राहों का राही।
पूरा सच कब लिख पाती है,
यहाॅं स्वार्थ की काली स्याही।
पर्वत-पर्वत ढूंढी थी बूटी,
संजीवन मिली ना सपनों को।
संत्रास मिला मिली वेदना,
तरस नहीं आया अपनों को।
शीतल जल समझ जिसे थामा,
निकाला वह तो चषक गरल का।
जटिल हुआ प्रश्न क्यूं जीवन का,
लगता था जो बहुत सरल सा।
‘मैं’खोकर ही ‘मैं’ को जाना,
और ‘मैं’की व्यथा अविनाशी।
सुराही में भर ली जीव ने
मैं जग- जलधि की जल राशि।
वह आत्म यज्ञ का है प्रणेता,
उसे षडयंत्रों ने भरमाया।
पावन आत्मा छलनी-छलनी,
जर्जर हो गई सुंदर काया।
अब तक सुनता रहा सभी की,
कभी नहीं की रे मनचाही।
उसको तुम मत मजबूर करो,
जीवन-रण का वही सिपाही।
उसने गर मन में ठान लिया,
सत्य मुखर होकर बोलेगा।
सत के ही तप से यह सच है,
सिंहासन झूठ का डोलेगा।
हर चेहरे से हटे मुखौटा
हट जाएगी रे सब काई।
सच की ही जय होगी जग में,
डूबेगी झूठी परछाई।
आत्म खोज होए रे पूरी,
भरे अधूरा रस प्याला।
अध्यात्म गंगा में डूब जाए,
निखरे होकर वह मतवाला।
प्रतिभा आर्य
चेतन एनक्लेव
अलवर (राजस्थान)

12 Likes · 6 Comments · 711 Views
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