सजर जबसे फल रहे हैं
मेरी कोशिशों के सजर जबसे फल रहे हैं
ज़माने के पत्थर खूब मुझ पे उछल रहे हैं
मेरे इरादे जो कल थे वहीं आज भी हैं
मेरे दुश्मनों के मंसूबे रोज बदल रहे हैं
रुख़ आंधियां के मुसलसल बदल रहे हैं
चिराग़ एतिमाद के फिर भी जल रहे हैं
हम जो दुश्मन से अक्सर मात खा जाते हैं
ज़रूर आस्तीन में कुछ सांप पल रहे हैं