सच है सुविधा का सुख से कोई संबंध नहीं, मन हो बैचेन तो, कंफर्ट में भी कोई दम नहीं
सच है सुविधा का सुख से कोई संबंध नहीं,
मन हो बैचेन तो, कंफर्ट में भी कोई दम नहीं
आलीशान सा दिख रहा था
होटल सा खिल रहा था,
एसी की सुखद सी ठंडक थी
दीवारें भी खूबसूरत पैंटिग्स से सुसज्जित थी,
फिर भी वहां जाने का मन में मलाल था,
क्योंकि आखिर वो एक अस्तपताल था–
कुछ ऐसा हुआ इन दिनों
उध्रर बार-बार चक्कर लग रहे थे,
रोगी को था बीमारियों ने घेरा
हम भी यहां कुछ मरीज से ही दिख रहे थे,
हर कोई अपने-अपने दर्द से बेहाल था
कोई दवाई खाकर, कोई जांच करवाकर
और कोई तो ऑपरेशन रुम में जाकर
हआ बेहाल था,
सही है आखिर वो अस्पताल था-
युं तो खाने के भी यहां अथक भंडार थे,
इतनी वैरायटी व्यंजनों की
रेस्ट्रोरेंट भी हर कोने में व्यापत थे,
पर एक डॉक्टर से दूजे तक भाग कर
फिर हरेक के लिखे टैस्ट करवा-करवा कर,
भूख तो मुझे भी बहुत लग रही थी
पर थकावट भी सिर पर चढ़ गई थी,
काम तो कम था पर जैसे टेंशन सी हो गई थी
खाने को तो बहुत स्वादिष्ट था सामने
पर नकारात्मकता की गंध जैसे हर शह में घुस गई थी,
भूख तो थी पर खाने को मन न तैयार था
आखिर वो इक अस्पताल था—
अरे! अब तो वो डॉक्टर गजब ढा गया
जहां एक दिन भी गुजारना हो रहा था मुश्किल,
वो “एडमिट करो’ का पर्चा मेरे हाथ में थमा गया,
अचानक मुझे मेरे ऑफिस पर प्यार आ रहा था
जहां बहुत काम होने की करती थी, शिकायतें मैं हरदम
मेरी वो टेबिल, वो कुर्सी, वो कंप्यूटर मुझे बेहद याद आ रहा था,
मैने ठंडी सांस ली, इतने विचारों से जो घिर गया था मन
मैने भी मजबूती से दिल ही दिल में किया प्रभु सिमरण
और कहीं ईश्वर याद आएं या न आएं पर यहां तो उनका साथ ही
एक ढाल था
आखिर वो इक अस्पताल था—
आखिर मीनाक्षी! तुझको यहां क्या परेशानी है
छुट्टी पर तो तू है ही क्या यह कम मेहरबानी है,
आलीशान महल सा तो यह बना हुआ है
सब सुविधाओं से लैस होकर वर्ल्ड क्लास यह सजा हुआ है
न खाना बनाने की टेंशन, न गंदगी सफाई का रोना
न कपड़े हैं धोने, न कोई बर्तन ही धोना
पापा के पास बस बैठे रहने का ही तो काम है
कुछ भी चाहिए तो हर तरफ घंटी बजाने का भी इंतजाम है
इसी समय मेरे मन में झट से इस चिंतन पनपा
मैने भी अपनी कविता को पहना दिया इस शीर्षक का तमगा
पर सुविधा का सुख से कोई संबंध नहीं
मन हो बैचेन तो कंफर्ट में कोई दम नहीं
मीनाक्षी भसीन© 28-09-17सर्वाधिकार सुरक्षित