सच में कितना प्यारा था, मेरे नानी का घर…
मेरी कलम से…
आनन्द कुमार
मिट्टी का घरौंदा
खप्पर का छत
गोबर से लीपा
दीवार और फर्श
उसमें से आती खुशबू
सच में कितना प्यारा था
मेरे नानी का घर…
पल्लू में बंधा दो रूपया
जब नानी देती थी चुपके से
दौड़ कर जाता था
टॉफी ले आता था
कभी-कभी लकठा
खुर्मा ले आकर
कोने में छुप-छुप कर
चुपके से खाता था
सच में कितना प्यारा था
मेरे नानी का घर…
चापा कल से पानी का भरना
नदी में जाकर, छप्प-छप्प नहाना
बगीचे में जाकर, शरीफा को खाना,
आम के पेड़ पर लटक-लटक जाना
लुकाछिपी के खेल में, खटिया के नीचे
बड़ा मज़ा आता था, मेरी शिकायत पर
जब मामा सबको पीटे
सच में कितना प्यारा था
मेरे नानी का घर…
मां के सम्बोधन से, क बेटा कह कर
मेरे को, नाना का पुकारना
पास बुलाकर दुलारना, पुचकारना
सच में कितना प्यारा था
मेरे नानी का घर…
मामा का सुबह सबेरे जलेबी ले आना
कभी-कभी ले जाकर पूड़ी सब्जी खिलाना
मां जैसी मामी का, प्यार उड़ेलना
मौसी का बाबू कहकर मुझको बुलाना
भाई बहनों की फौज थी कितनी
सच में यारों नानी के घर मौज थी कितनी
सच में कितना प्यारा था
मेरे नानी का घर…
खप्पर नहीं है, छप्पर नहीं
सोंधी-सोंधी मिट्टी की अब खुशबू नहीं
नाना नहीं हैं, और नानी नहीं हैं
बचपन की चिल्लाहट और यारी नहीं है
नानी का पुराना वह घर भी नहीं है
बने हैं इमारत पर हिस्से कई हैं
बचे शेष बूढ़े, जो प्यार खुब हैं करते
पर जाऊं मैं कैसे, मेरे पास समय ही नहीं है…