*** संस्मरण ***
संस्मरण / दिनेश एल० “जैहिंद”
हम दो भाई हैं, मैं ज्येष्ठ हूँ । पिताजी की हार्दिक इच्छा थी कि हम दोनों भाई पढ़-लिख कर किसी सरकारी नौकरी पर लग जाएं और हमारी पारिवारिक स्थिति सुधर जाए फिर आगे के लिए परिवार की आर्थिक-स्थिति मजबूत हो जाय और वे परिवार की ओर से निश्चिंत हो जाएं । मगर ऐसा नहीं हुआ ।
आदमी की इच्छा-पूर्ति और उसके प्राण का रहस्य कहीं और छुपा होता है ।
उन दिनों दसवीं के बाद अच्छी-खासी सरकारी नौकरियां उपलब्ध थीं, फिर बारहवीं और बी° ए° के बाद तो और भी………!
पर हम दोनों भाइयों में से कोई एक भी सरकारी नौकरी लेने में सफल नहीं हो सका । भाई तो अर्थाभाव के कारण बिल्कुल ही कोशिश न कर सका, परन्तु मैंने थोड़ी बहुत कोशिश की थी ! लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात ।
फिल्मों का जो चस्का लगा था, उच्च महत्त्वाकांक्षाएँ माता-पिता की लालसा व उम्मीदों पर पानी फेर देती हैं और कभीकभार खुद के लिए जीना दूभर कर देती हैं ।
भाई दिल्ली जाकर किसी फैक्टरी में लग गया और मैं गीतकार व लेखक बनने के लिए कभी दिल्ली, कलकत्ता तो बम्बई तो कभी गाँव का चक्कर लगाता रहा और पिताजी की नजरों का कोपभाजन बनता रहा ।
पिताजी हमारी तरफ से हताश और अंतत: निराश हो गए । उनमें अब लेशमात्र भी हमसे उम्मीद बची न रह सकी । वे अब नौकरी से रिटायर्ड हो चुके थे और गाँव में आकर रहने लगे थे । परन्तु हम दोनों भाइयों में से कोई भी सरकारी मुलाजिम न बन पाया और इसका मलाल उन्हें ताउम्र बना रहा ।
विगत चार साल पहले वे हमसे रूठ गए और वे अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी अपूर्ण लालसा आज भी मेरे दिल को चोट मारती है और मैं दिल मसोसकर रह जाता हूँ ।
विगत 2015 जुलाई में भगवान की असीम कृपा से मेरे बड़े लड़के जीतेश की बिहार पुलिस बी° एम° पी° में नौकरी हो गई और फिर हम सबको पिताजी की बहुत याद आई । छोटे भाई और शेष सभी ने एक सूर में कहा— “काश पिताजी होते और वे अपनी आँखों से ये सब देख पाते ।“
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दिनेश एल० “जैहिंद”
12. 04. 2017