संवेदना
जब हृदय अभिभूत हो जाए ,
किसी प्राणी की वेदना से।
तन में घनीभूत प्राण यूं,
विचलित हो उठे वेदना से।
संतृप्त भावों की धरा पर,
संवेदना की शीतल बूंदें।
झेले, जाने उसे पीड़ा को,
रह ना सके आंखें मूंदे।
बनकर स्वयं शिव हर लेता,
जब पर पीड़ा की तपन को।
यह संवेदना ही मानव की,
करती दूर तीव्र जलन को।
धीरज बंधा देकर सांत्वना,
समभाव सहे दर्द जगती का।
यह प्रकृति है श्रेष्ठ मानव की,
समष्टि झेले क्षत व्यक्ति का।
हृदय की भाव भूमि से नमन,
हर एक कंठ विषपायी को।
सब सहकर बन जाता मनस्वी,
दे आंसू पीर परायी को।
पिघलना किसी व्यथा कथा से,
युग- युग से यह रीत पुरानी।
अश्रु मुक्ता भर लो आंचल में,
बनकर संवेदना के दानी।
—प्रतिभा आर्य
चेतन एनक्लेव,
अलवर(राजस्थान)