संवेदना (वृद्धावस्था)
शीर्ष थे परिवार में, ज्यों व्योम के तुम प्रथम तारे
ओ विपिन के वट-विटप, अब शून्य में किसको निहारे !
जोड़कर तृण-तृण तुम्हीं ने, दिवस ना कुछ रात देखा,
पर किया जिनके लिए उसने न तेरी ओर देखा !
सब सुखों को त्यागकर नव स्वप्न नित तुमने संजोये,
बह गए नदियों में या फिर पश्चिमी बागों में खोये !
कल्पना तो मात्र थी कुछ कष्ट वह तेरा संवारे,
ओ विपिन के वट-विटप, अब शून्य में किसको निहारे !!
देखकर यह कृति नियति की समझ में कुछ भी न आती,
कलम भी यह रो पड़ी है, फट गई कागज की छाती !
उम्रभर उद्यान को निज रक्त से सिंचित किया था,
लिखूं क्या? निशब्द हूँ! जिसने उसे पोषित किया था-
आज वह वट टहनियों औ पत्तियों का पग निहारे !
ओ विपिन के वट-विटप, अब शून्य में किसको निहारे !!
चाहता वह कल्पतरु बस, प्रियवचन का बूंद पानी,
श्रुतिपटल पर जा पड़े बस प्रेम से परिपूर्ण वाणी !
पारितोषिक की कहाँ इच्छा ! मात्र प्रिय वचन के स्वर,
स्नेह से अपनत्व के पल चाहते हैं नैन कातर !
बिन पुकारे दिया जिसने, आज वह किसको पुकारे?
ओ विपिन के वट-विटप, अब शून्य में किसको निहारे !!
संस्कार मेरे राष्ट्र में सर्वोच्च थे, कुछ कम कहाँ थे,
दिखा दो इतिहास है तो, यहाँ वृद्धाश्रम कहाँ थे ?
भूल बैठे संस्कृति को, हाय यह संयोग क्या है ?
विश्वगुरु के इस धरातल पर तेरा अभियोग क्या है ?
टूट कर क्यों गिर पड़े, संवेदना के तार सारे,
ओ विपिन के वट-विटप, अब शून्य में किसको निहारे !!
– नवीन जोशी ‘नवल’
दिल्ली।
(स्वरचित)